________________ वनस्पति-विज्ञान निश्चय करके कर्म-दोष से होते हैं / उनके नाश के लिए पापनाशक एवं कल्याणकारक योग में नियुक्त करता हूँ। शाङ्गधर के इस कथन में तनिक भी सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में हम, रोग अपने कर्म से ही उत्पन्न करते हैं / जो रोग वात-पित्त और कफ के कुपित होने से उत्पन्न होते हैं, वे स्वाभाविक कहे जाते हैं / जो प्रेत-बाधा, अग्नि और शस्त्र प्रहार आदि से उत्पन्न होते हैं वे आगन्तुक कहे जाते हैं; और जो प्रियवस्तु के अप्राप्य तथा अप्रिय के प्राप्त होने से उत्पन्न होते हैं, वे मानसिक, अर्थात् कायिक कहे जाते हैं। हमारी आयुर्वेदिकचिकित्सा अपूर्व है। उसमें भी. वनस्पति-चिकित्सा की तो तुलना किसी भी चिकित्सा से नहीं की जा सकती। संसार का कोई भी चिकित्सा-शास्त्र इसकी समता नहीं कर सकता। किन्तु अपनी क्लिष्टता के कारण आज यह महती-चिकित्सा लुप्तप्राय हो रही है। भारतवासियों की दुर्वलेन्द्रियता, असमय की वृद्धावस्था और अकाल मृत्यु आदि दुःखद अवस्थाएँ आयुर्वेद की चिकित्सा लुप्त होने से ही हुई हैं। हम लोगों ने केवल चमक-दमक के फेर में फंसकर अपने बहुमूल्य हीरे को खो दिया है, और स्वयं अपने हाथों अपनी कळ खोद डाली हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि आज वैज्ञानिक उन्नति के शिखर पर पहुँचे हुए विदेशी विद्वान भी इसका लोहा मानते हैं।