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उन का नाम जयवल्लभ है। वे श्वेताम्बर जैन थे। स्वयं संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होने पर भी उन्होंने लोगों को संस्कृत ज्ञान शून्य एवं शृंगार प्रिय देख कर प्राकृत गाथाओं का यह संग्रह प्रस्तुत किया था। संग्रहकार ने स्वयं भी मद्रालंकार शैली में अपना नाम दिया है। वे दुराग्रहहीन एवं साम्प्रदायिक संकीर्णता से निर्मुक्त व्यक्ति प्रतीत होते है । जैन होने पर भी अपने संग्रह में जनेतर साहित्य को प्रमुख स्थान देना उन के हृदय की उदारता का सजीव प्रमाण है। इस से अधिक संग्रहकार के सम्बन्ध में कोई विशेष बात ज्ञात नहीं है । वज्जालग्ग की अनेक सरस गाथायें ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, सरस्वतीकण्ठाभरण प्रभृति ग्रन्थों में उदाहृत है परन्तु एक भी स्थान पर उसके नाम का उल्लेख नहीं है। संभव है, काव्य शास्त्र के विभिन्न आचार्यों ने उक्त गाथायें किसी अन्य स्रोत से प्राप्त की हों। संस्कृत या प्राकृत की किसी अन्य कृति में भी वज्जालग्ग या उस के रचयिता की कोई चर्चा नहीं है। ग्रन्थकार ने स्वयं अपना समय नहीं दिया है, अतः उनके काल का निर्धारण करना एक दुःसाध्य कार्य है । वज्जालग के टीकाकार रत्नदेव ने अपनी टीका का समय संवत् १३९३ (ई० १३३६) दिया है जिससे केवल इतना पता चलता है कि मल ग्रन्थ की रचना इस के पूर्व ही कभी हुई होगी । वावपतिराज (७५०ई०) की एक गाथा वज्जालग्ग में संगृहीत है। इस आधार पर प्रो० पटवर्धन का मत है कि यह ७५० ई० और १३३६ ई. के मध्य व भी रचा गया होगा। मुझे चपन्नमहापरिसचरियं और लीलावई' की एक-एक गाथा बज्जालग्ग में मिली १. देखिये टीका २. र इयं वज्जालग विहिणा जयवरलहं नाम ।-तृतीय गाथा ३. वच्चंति अहो उड्ढे अइंति मूलंकुरव्व पुहईए ।
वीयाहि व एकत्तो कुलाहि पुरिसा समुप्पण्णा ।।-गउडवहो ७२२ वज्जालग्ग में इस का विवृ त पाठ इस प्रकार हैउड्ढे वच्चंति अहो वर्गति मूलंकुरव्व भुवर्णमि ।
विज्जाहियए कत्तो कुलाहि पुरिसा समुप्पन्ना ||-७०२ ४. ता तुंगो मेरुगिरी मयरहरो ताव होइ दुत्तारो। ता विसमा कज्जगई जाव ण धीरा पवज्जति ॥
-चउपन्नमहापुरिसचरियं-२९।३ यह धीर वज्जा की तेरहवीं गाथा है। ५. गहिऊण चूयमंजरि कीरो भमई पत्तलाहत्थो ।
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