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हो गया था' । व्रज् धातु से दो समूहार्थक शब्द निष्पन्न होते हैं - व्रज और व्रज्या । प्रथम अति प्रचलित है और द्वितीय प्रायः अप्रचलित । प्राचीन काल में अपनी या अन्य की स्फुट रचनाओं को संगृहीत करने की परंपरा थी। जिन ग्रन्थों में ऐसी रचनाओं का संग्रह किया जाता था, वे कोष कहलाते थे । आचार्य हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में लिखा गया है कि कोष में स्वरचित और पररचित सूक्तियाँ संगृहीत रहती हैं | साहित्य दर्पण के अनुसार अन्योन्यानपेक्षक (स्फुट ) पद्यों का संग्रह कोष है । व्रज्या क्रम से रचित कोष- काव्य अति मनोरम होता
12 सजातीय पद्यों के एकत्र सन्निवेश (संग्रह) का नाम व्रज्या है । इन उल्लेखों से सूचित होता है कि प्राचीन काल में कोष-रचना की दो प्रमुख परिपाटियाँ थीं । एक में अपने या अन्य के सुन्दर पद्य इतस्ततः संगृहीत कर दिये जाते थे, उन्हें विषयों के अनुसार एक स्थान पर नहीं रखा जाता था । दूसरी में पद्यों का विषयानुसार वर्गीकरण किया जाता था । एक वर्ग के पद्य एक साथ, एक ही क्रम में रखे जाते थे । एक वर्ग में संगृहीत सभी पद्य एक ही विषय का वर्णन करते थे अतएव वे सभी सजातीय कहलाते थे । प्रथम परिपाटी प्राचीन है और द्वितीय अर्वाचीन । प्राकृत में प्रथम का प्रतिनिधि ग्रन्थ गाहा सत्तसई है और द्वितीय का वज्जालग्ग । वर्तमान वज्जालग्ग ९५ व्रज्याओं ( वज्जाओं) या वर्गों में विभक्त है । द्वितीय ढंग के संग्रहों या कोष काव्यों में वर्ग का आधार विषय ही होता था । अतः आगे चलकर वर्ग वाचक व्रज्या शब्द अधिकार या प्रकरण के अर्थ में प्रचलित हो गया । इतना ही नहीं व्रज्या के समानार्थक पद्धति का भी उसी अर्थ में प्रयोग होने लगा । इस सन्दर्भ में आचार्य हेमचन्द्र की निम्नलिखित सूचना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । उनके अनुसार वज्जा ( व्रज्या) का अर्थ है अधिकार या
प्रकरण-
वज्जा अहियारे (व्रज्या अधिकारे) ।
- देशीनाममाला, ७।३२ लग्ग शब्द का मूल यद्यपि संस्कृत लग्न है तथापि प्राकृत में वह भी एक नये अर्थ में प्रयुक्त होने लगा था । देशीनाममाला में उसका अर्थ चिह्न लिखा हैलग्गं चिन्धे (लग्नं चिह्ने) – ७/१७
१. व्रज्या प्रस्थाने वर्गे पर्यटनेऽपि च । —मेदिनी
२. स्व पर कृत सूक्तिसमुच्चयः कोषः । काव्यानुशान, ६।१३
३. कोषः श्लोक समूहः स्यादन्योन्यानपेक्षकः ।
व्रज्याक्रमेणरचितः स एवाति मनोरमः ॥ साहित्य दर्पण, ६ । ३२९
४. सजातीयानामेकत्रसन्निवेशो व्रज्या |
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