Book Title: Uttaradhyayanani
Author(s): Suryodaysagarsuri, Narendrasagarsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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उत्तराध्ययन सूत्र
२१३ mmmmmmmmmmonsiwaru,
पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्त-समिइ -सम्मत्ते सब्वपाण-भूय-जीव-सत्तेसु वीससणिजरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतव-समिइसमण्णागए आवि भवइ ॥४२॥ वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरणामगोत्तं कम्मं णिबंधइ ॥४३॥ सव्वगुसंपण्णयाए णं भंते ! जीवे कि जणइ ? सव्वगुणसंपण्णयाए अपुणरावत्तिं जणयइ, अपुणरावत्तिं पत्तए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं णो भागी भवइ ॥४४॥ वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणइ ? वीयरागयाए णं णेहाणुबंधणाणि तण्हाणुवंधणाणि य वोच्छिंदइ, मणुण्णामणुण्णेसु सद्द-फरिस-रूव-रस-गंधेसु विरजइ ॥४५॥ खंतीए णं भन्ते ! जीवे किं जगयइ ?, खंतीए णं
प्रकटलिङ्गः प्रशस्तलिङ्गो विशुद्धसम्यक्त्वः समाप्तसत्यसमितिः सर्वप्राणभूतजीवसत्वेषु विश्वसनीयरूपोऽप्रत्युपेक्षा जितेन्द्रियो विपुलतपसमितिसमन्वागतश्चापि भवति ॥४२॥ वैयावृत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? वैयावृत्येन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निबध्नाति ॥४३॥ सर्वगुणसंपन्नतया मदन्त ! जीवः किं जनयति ?; स० ननुपुनअवृत्तिं जनयति, अपुनरावृत्तिप्राप्तको नु जीवः शारीरमानसानां दुःखानां नो भागी भवति ॥४४॥ वीतरागतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?; वी. स्नेहानुबन्धनानि तृष्णानुबन्धनानि च व्यवच्छिनत्ति मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरूपरसगन्धेषु बिरज्यते ॥४५॥ क्षान्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ?, क्षा०

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