________________ (1) पाणाइवाआओ वेरमणं—प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का परित्याग / (2) मुसावांयाओ वेरमणं—मृषावाद अर्थात् असत्य भाषण का परित्याग / (3) अदिन्नादाणाओ वेरमणं—अदत्तादान अर्थात् चोरी का परित्याग / (4) मेहुणाओ वेरमणं—मैथुन का परित्याग / (5) परिग्गहाओ वेरमणं—परिग्रह का त्याग / इन महाव्रतों की रक्षा के लिए साधु पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों का पालन करता है। वाइस परीषहों को जीतता है। भिक्षाचरी, निवास, विहार, भोजन आदि प्रत्येक चर्या में सावधान रहता है। संयम के लिए आवश्यक उपकरणों को छोड़कर अपने पास कोई परिग्रह नहीं रखता। रुपया, पैसा तथा धातु से बनी हुई वस्तुएं रखना भी जैन साधु के लिए वर्जित हैं। वस्त्र-पात्र भी इतने ही रखते हैं जिन्हें स्वयं उठा सकें। विहार में किसी सवारी को काम में नहीं लाते। सदा पैदल चलते हैं। अपना सारा सामान अपने ही कंधों पर उठाते हैं, नौकर या कुली नहीं रखते। स्वावलम्बन उनकी चर्या का मुख्य अङ्ग है। प्राकृत भाषा में जैन साधुओं के लिए समण शब्द का प्रयोग होता है। उसके संस्कृत में तीन रूप होते हैं श्रमण, शमन और समन। इन तीन रूपों में जैन साधु की चर्या का निचोड़ आ जाता है। सबसे पहले जैन साधु श्रमण होता है।. वह आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक सभी बातों में अपने ही श्रम पर निर्भर रहता है। आध्यात्मिक विकास के लिए तपस्या तथा संयम द्वारा स्वयं श्रम करता है। . भौतिक निर्वाह के लिए भी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता। अपने सारे काम स्वयं करता है। भिक्षा के लिए भी कई घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर अपना निर्वाह करता है। किसी पर बोझ नहीं बनता। जैन साधु शमन भी होता है। वह क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों तथा इन्द्रिय-वृत्तियों का शमन करता है। अपनी आवश्यकताओं तथा इच्छाओं को सीमा में रखता है। अन्तिम किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि साधु समता का आराधक होता है। वह सभी प्राणियों पर समदृष्टि रखता है। न किसी को शत्रु समझता है, और न किसी को मित्र / सुख और दुख में समान रहता है। अनुकूलता और प्रतिकूलता में समान रहता है। निन्दा और स्तुति में समान रहता है। स्व और पर के प्रति समान रहता है। इस प्रकार वह समस्त विश्व को समान दृष्टि से देखता है। इसी बात को लक्ष्य में रखकर उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है, “समयाए समणो होइ।" ... देवतत्त्व साधना के आदर्श को उपस्थित करता है तो गुरुतत्त्व साधना का मार्ग बताता है। साधक को इधर-उधर विचलित होने से रोकता है। शिथिलता आने पर प्रोत्साहन देता है। गर्व आने पर शान्त करता है। धर्म तत्त्व सम्यक्त्व में तीसरी बात धर्म तत्त्व अर्थात् दार्शनिक सिद्धान्तों की है। इसके लिए जैन कहता है | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 43 / प्रस्तावना