________________ .. “माया पिउ पुत्ताई, णियगो, सयणो, पिउव्व भायाई / * संबंधी ससुराई, दासाई परिजणो णेओ // " मित्र वह है जो सदा हित की बात बताता है और सदा हित ही करता है। समान आचार-विचार वाले स्वजाति वर्ग को ज्ञाति, माता-पिता पुत्र आदि को निजक, भाई आदि को स्वजन, श्वसुर आदि को सम्बन्धी और दास आदि को परिजन कहते हैं। भगवान महावीर का समवसरण___ मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए। परिसा निग्गया। कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निगच्छइ। निग्गच्छित्ता जाव पज्जुवासइ // 6 // ___ छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो यावत् समवसृतः। परिषन्निर्गता। कूणिको राजा यथा, तथा जितशत्रुर्निर्गच्छति / निर्गत्य यावत् पर्युपास्ते। शब्दार्थ तेणं कालेणं तेणं समएणं—उस काल उस समय, समणे ‘भगवं महावीरे जाव समोसरिए श्रमण भगवान महावीर यावत् वाणिज्यग्राम में आये, कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निगच्छइ कूणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी निकला, निग्गच्छित्ता निकलकर, जाव यावत् पज्जुवासइ–भगवान के पास आया और उसने भगवान् महावीर की वन्दना तथा चरणसेवा की। भावार्थ—उस समय भगवान् महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम धर्मोपदेश देते हुए वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतिपलाश चैत्य में पधारे / परिषद् वन्दन करने को निकली। कूणिक के समान जितशत्रु राजा भी वैभव के साथ निकला और भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ। टीका-सूत्र में परिषद् (परिसा) शब्द दिया हुआ है उसका यह भाव है—परिसर्वतोभावेन सीदन्ति- उपविशन्ति-गच्छन्ति वा जना यस्यां सा परिषत्—सभा। अर्थात् जिस स्थान पर लोग विचार-विनिमय करने के लिए बैठते हैं, उसका नाम परिषद् है। यह तीन प्रकार की होती है 1. ज्ञा परिषद् निपुण, बुद्धि सम्पन्न, विचारशील, गुण-दोष को जानने वाली, दीर्घदर्शी एवं औचित्यानुचित्य का विवेक करने वाली 'ज्ञा' परिषद् होती है। 2. अज्ञा परिषद् अज्ञानी किन्तु विनयशील तथा शिक्षा मानने में तत्पर जिज्ञासुओं की सभा, 'अज्ञा' परिषद् होती है। 1 माता-पितृ-पुत्रादिनिजकः,स्वजनः पितृव्यभ्रात्रादिः / सम्बन्धी श्वशुरादिर्दासादिः परिजनो ज्ञेयः // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 83 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन