Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 389
________________ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या अवसर्पिणी विश्व के विषय में आधुनिक विज्ञान की मान्यता है कि इसमें प्रतिदिन विकास हो रहा है, दूसरी ओर वैदिक परम्परा के अनुसार इसमें प्रतिदिन ह्रास हो रहा है। जैन धर्म न विकासवादी है और न ह्रासवादी, वह परिवर्तनवादी है। इसका अर्थ है, उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान / इसी परिवर्तन को एक कालचक्र के रूप में उपस्थित किया गया है, उसके बारह आरे हैं छ ऊपर से नीचे अर्थात् पतन की ओर जा रहे हैं और छ नीचे से ऊपर अर्थात् उत्थान की ओर / पतन की ओर जाने वाले आरों को अवसर्पिणी काल तथा उत्थान की ओर जाने वाले आरों को उत्सर्पिणी काल कहा जाता है। इस समय अवसर्पिणी काल का पञ्चम आरा चल रहा है। इसके प्रथम दो आरों तथा तृतीय के प्रारम्भिक तीन चरणों में भारतवर्ष भोगभूमि था, अर्थात् व्यक्ति प्रकृति द्वारा स्वयं प्रदत्त सामग्री पर निर्वाह करते थे। आजीविका के लिए पुरुषार्थ या कर्म करने की आवश्यकता नहीं थी। तृतीय आरे के अन्त में प्रकृति के वरदान न्यून हो गए और परस्पर संघर्ष के अवसर आने लगे। उस समय प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव हुए। उन्होंने राज्य संस्था की नींव डाली, और आजीविका के लिए आग. जलाना, बर्तन बनाना, खेती करना आदि विद्याओं का आविष्कार किया। उस समय से यह देश भोगभूमि के स्थान पर कर्मभूमि बन गया। उन कर्मों को असि अर्थात् सैनिक वृत्ति, मसी अर्थात् विद्यावृत्ति तथा कसी (कृषि) अर्थात् खेती आदि वैश्यवृत्ति के रूप में विभक्त किया गया। वैदिक परम्परा में जो स्थान मनु का है वह जैन परम्परा में ऋषभ देव का है। इसके पश्चात् चौथे आरे में अन्य तेईस तीर्थङ्कर हुए। अन्त में भगवान महावीर हुए जिनका समय ईसवी पूर्व 566 माना जाता है। महावीर 30 वर्ष तक गृहस्थ में रहे उसके पश्चात् साढ़े बारह वर्ष साधना में बिताए और 30 वर्ष तक धर्मोपदेश किया। प्रस्तुत घटना उस समय की है, जब उन्हें कैवल्यप्राप्ति हो चुकी थी और गौतम आदि गणधर भी दीक्षित हो चुके थे। अतः इसे स्थूल रूप में ईसवी पूर्व 550 के लगभग रख सकते ___ अमत्त (अमात्य) संस्कृत व्याकरण में इस शब्द का अर्थ बताया गया है ‘अमा' अर्थात् सहभवः, अमात्यः अर्थात् वह मन्त्री जो राजा के साथ रहता हो। राजा प्रत्येक कार्य में उसकी सलाह लेता है, राजा के अनुचित कार्य की ओर प्रवृत्त होने पर वह उसे रोकता है। 'आवश्यकचूर्णि' में इस बात का उल्लेख भी आया है कि राजा के कर्त्तव्यभ्रष्ट होने पर अमात्यपरिषद् ने उसे सिंहासन-च्युत कर दिया। वसन्तपुर में जितशत्रु नाम का राजा था। वह अपनी श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 384 / परिशिष्ट

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