Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 393
________________ और अनुमोदन करना ये तीन करण कहे जाते हैं और मन, वचन तथा काया को योग कहा जाता है।' इन्हीं के परस्पर मेल से उपरोक्त भेद हो जाते हैं। हीनतम कोटि का त्याग एक करण एक योग से है अर्थात् अपने हाथ से न करना। सर्वोत्कृष्ट कोटि का त्याग तीन करण तीन योग से होता है अर्थात् मन, वचन और काया से न स्वयं करना, न दूसरे से कराना और न करने वाले का अनुमोदन करना / ___धम्म-पण्णत्ती (धर्म-प्रज्ञप्ति) भारतीय सम्प्रदायों में धार्मिक अनुष्ठान के लिए शास्त्राज्ञा, देशना, प्रज्ञप्ति आदि अनेक शब्द मिलते हैं। वे तत्-तत् सम्प्रदाय के मूल दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं। वैदिक परम्परा में आदेश या आज्ञा शब्द मिलता है। वहां वेद की आज्ञा को ही धर्म माना गया है। मनुष्य को उसके सम्बन्ध में विचार करने या ननुनच करने का अधिकार नहीं है। बौद्धों में बुद्ध देशना शब्द मिलता है। देशना का अर्थ है मार्ग-दर्शन, बुद्ध का मुख्य लक्ष्य जीवन के मार्ग को प्रतिपादन करना था। वे तत्त्व चर्चा में नहीं गए / भगवान महावीर के लिए प्रज्ञप्ति शब्द मिलता है। इसका अर्थ है अच्छी तरह सम्यक् रूप से ज्ञान कराना। भगवान महावीर का लक्ष्य यह था कि व्यक्ति को सत्य का ज्ञान करा देना चाहिए। उसे बता देना चाहिए कि हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है, यथार्थ सुख कहां है और उसे प्राप्त कराने वाला मार्ग कौन सा है? इसके पश्चात् मार्ग को चुनना और उस पर चलना व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर है। प्रज्ञप्ति शब्द का यही अर्थ है। इसी अर्थ को लक्ष्य में रखकर श्यामाचार्य ने पण्णवणा (प्रज्ञापना) सूत्र की रचना की है। निग्गंथं पावयणं नैर्ग्रन्थ प्रवचनं अ. 1 सू. 12 / पत्तियामि (प्रत्येमि) अ. 1 सू. 12 / रोएमि (रोचे) अ. 1 सू. 12 / जब कोई नया व्यक्ति भगवान महावीर का उपदेश सुनकर उनका अनुयायी बनना चाहता है तो वह उपरोक्त शब्दों में अपनी इच्छा प्रकट करता है। वह कहता है हे भगवन्! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है अर्थात् अच्छा लगता है। उसे सुनकर मेरे मन में प्रसन्नता होती है। पातञ्जल योग दर्शन की व्याख्या में व्यास ने इस प्रसन्नता को श्रद्धा कहा है (श्रद्धा मनसः सम्प्रसादः यो. सू. 1-20) / इस वाक्य का दूसरा पद है पत्तियामि। इसका अर्थ है प्रत्यय अर्थात् विश्वास करता हूं। श्रद्धा दृढ़ होने पर अपने आप विश्वास के रूप में परिणित हो जाती है। तीसरा पद है निर्ग्रन्थ / इसका अर्थ है जो ग्रन्थ (गांठ) अर्थात् परिग्रह को त्याग चुका है। यह शब्द जैन परम्परा के श्रमणों के लिए प्रयुक्त होता है। विशेषतया भगवान महावीर के लिए। चौथा पद है प्रवचन | इसका अर्थ है उत्तम वाणी। वैदिक परम्परा में इसके स्थान पर अनुशासन शब्द मिलता है। उसका अर्थ है परम्परा प्राप्त आज्ञा / जैन धर्म उक्त परम्परा को अधिक महत्व नहीं श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 388 / परिशिष्ट

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