________________ महाशतक का पौषधशाला में धर्माराधनमूलम् तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा वइक्कंता। एवं तहेव जेठं पुत्तं ठवेइ, जाव पोसह-सालाए धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ // 245 // छाया–ततः खलु तस्य महाशतकस्य श्रमणोपासकस्य बहुभिः शील यावद् भावयतश्चतुर्दश संवत्सरा व्युत्क्रान्ताः। एवं तथैव ज्येष्ठं पुत्रं स्थापयति यावत्पौषधशालायां धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरति ___ शब्दार्थ तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स तदनन्तर उस महाशतक श्रमणोपासक के, बहूहिं सील जाव भावमाणस्स—विविध प्रकार के व्रत-नियमों के द्वारा आत्मा का संस्कार करते हुए, चोद्दस संवच्छरा वइक्कंता–१४ वर्ष व्यतीत हो गए, एवं तहेव इस प्रकार आनन्द की भान्ति, जेठं पुत्तं ठवेइ उसने भी ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार दे दिया, जाव—यावत्, पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं—पौषधशाला में धर्मप्रज्ञप्ति को, उपसंपज्जित्ता णं विहरइ–ग्रहण करके विचरने लगा। - भावार्थ महाशतक श्रमणोपासक को विविध प्रकार के व्रत-नियमों का पालन तथा धर्म द्वारा आत्मा का संस्कार करते हुए 14 वर्ष व्यतीत हो गए। उसने भी आनन्द की भान्ति ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दिया और स्वयं पौषधशाला में धर्मानुष्ठान करने लगा। . रेवती का कामोन्मत्त होकर पौषधशाला में पहुंचना मूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं विकड्ढमाणी 2 जेणेव पोसह-साला जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्माय-जणणाई सिंगारियाई इत्थिभावाइं उवदंसेमाणी 2 महासययं समणोवासयं एवं वयासी–“हंभो महासयया ! समणोवासया! धम्म-कामया! पुण्णकामया! सग्ग-कामया! मोक्ख-कामया! धम्म-कंखिया! 4, धम्म-पिवासिया 4, किण्णं तुब्भं, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा, पुण्णेण वा, सग्गेण वा, मोक्खेण वा?, जण्णं तुमं मए सद्धिं उरालाइं जाव भुजमाणे नो विहरसि?" || 246 // ' छाया ततः खलु सा रेवती गाथापली मत्ता, लुलिता, विकीर्णकेशी, उत्तरीयकं विकर्षन्ती 2 येनैव पौषधशाला येनैव महाशतकः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य मोहोन्मादजननान् श्रृङ्गारिकान् स्त्री-भावान् उपदर्शयन्ती 2 महाशतकं श्रमणोपासकमेवमवादीत्-"हंभो महाशतक! श्रमणोपासक! धर्मकामुक! पुण्यकामुक! स्वर्गकामुक! मोक्षकामुक! धर्मकांक्षिन्! 4 धर्मपिपासित! 4, श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 336 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन