Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 382
________________ .. ऐतिहासिक नामों का परिचय गोशालक-उपासकदशाङ्गसूत्र में गोशालक और उसके सिद्धान्त का वर्णन दो बार आया है। भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक में उसका विस्तृत वर्णन है। गोशालक छद्मस्थ काल में भगवान महावीर का शिष्य रहा और उसके पश्चात् उनका प्रतिस्पर्धी बन गया। वह आजीविक सम्प्रदाय का तीसरा आचार्य माना जाता है। भगवतीसूत्र में आया है कि गोशालक से 117 वर्ष पहले आजीविक सम्प्रदाय प्रारम्भ हो चुका था। गोशालक निमित्त शास्त्र का पण्डित था। उसने यह छः दिशाचर संन्यासियों से सीखा था। आजीविक सम्प्रदाय के अन्य साधु भी इसके अभ्यासी थे। आजीविक सम्प्रदाय की दूसरी विशेषता है कठोर तपश्चरण। स्थानमङ्गसूत्र में उनके द्वारा की जाने वाली चार प्रकार की तपस्याओं का उल्लेख है। उववाईसूत्र में आजीविकों की नीचे लिखी श्रेणियां बताई गई हैं 1. प्रत्येक, द्वितीय, तृतीय चतुर्थ, षष्ठ अथवा सप्तम घर से भिक्षा लेने वाले, 2. केवल कमल-नाल की भिक्षा लेने वाले, 3. प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले, 4. बिजली चमकने पर भिक्षा छोड़ देने वाले, 5. बड़े मटके में बैठकर तपस्या करने वाले (उष्ट्रिक श्रमण)। आजीविक साधु अकेले रहते थे, ठंडे पानी का उपयोग करते थे। गेहूं चने आदि कच्चे अनाज को स्वीकार करते थे और अपने लिए बना हुआ भोजन अर्थात् आधाकर्मी आहार स्वीकार करते थे। स्त्रियों से सम्बन्ध रखते थे और दिगम्बर घूमते थे। ___ आजीविक सम्प्रदाय के गृहस्थ गोशालक को अर्हत्, जिन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा तीर्थङ्कर कहकर पूजते थे। माता-पिता में भक्ति रखते थे। पांच प्रकार के फलों का परित्याग करते थे। उदुम्बर, वट (बड़ का फल) बोर (मञ्जरी), सतर तथा पिलंखु, कन्द-मूल, गाजर, प्याज भी नहीं खाते थे। ऐसा व्यापार करते थे जिसमें जीवहिंसा न हो और खस्सी किए बिना ही बैलों को काम में लाते थे। वे भी 15 कर्मादानों द्वारा आजीविकोपार्जन नहीं करते थे। उपासकदशाङ्गसूत्र में सद्दालपुत्र का वर्णन आजीविकोपासक के रूप में आया है। श्रावस्ती और पोलासपुर आजीविकों के मुख्य केन्द्र थे। वहां एक आजीविकशाला का भी वर्णन मिलता है। -- सद्दालपुत्र के कथानक से ज्ञात होता है कि गोशालक नियतिवादी था अर्थात् वह मानता था कि विश्व का परिवर्तन निश्चित है। पुरुषार्थ या पराक्रम के द्वारा उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। सूत्रकृताङ्ग में नियतिवाद की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि हमारे सुख-दुख न तो हमारे किए हुए हैं और न किसी दूसरे के। वे सब नियत हैं अर्थात् जो होने हैं होकर रहेंगे। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 377 / परिशिष्ट

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