Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 380
________________ वाराणसी-भगवान महावीर ने अपना १८वां वर्षावास वाराणसी में बिताया और चुलनीपिता तथा सुरादेव को श्रावक बनाया। यह नगर गङ्गा के पश्चिमी तट पर बसा हुआ है और अब भी विद्या तथा व्यापार का विशाल केन्द्र है। इसके एक ओर ‘वरणा' नदी है और दूसरी ओर ‘अस्सि' नाम का बरसाती नाला। इन्हीं दोनों के बीच बसी होने के कारण इसे वाराणसी कहा जाता है। मुसलमानों तथा अंग्रेजों के समय नाम को बिगाड़कर इसे बनारस कहा जाने लगा। स्वतंत्र भारत में पुनः वाराणसी प्रचलित कर दिया गया। यह 23 वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की जन्म भूमि है। इससे कुछ ही दूर बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थ सारनाथ है जहां बुद्ध ने सर्व प्रथम उपदेश दिया था। इसी के आसपास का जंगल बौद्ध साहित्य में 'मृगदाव' के नाम से प्रसिद्ध है। सारनाथ को जैन तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभमि माना जाता है। उससे पांच मील दूर चन्द्रावती नाम का स्थान है जो आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की जन्मभूमि है। वैदिक साहित्य में वाराणसी का वर्णन काशी के नाम से मिलता है। और उसे दस पवित्र नगरियों में गिना गया है। इस प्रकार वाराणसी का जैन, बौद्ध और ब्राह्मण तीनों परम्पराओं में महत्वपूर्ण स्थान है। जैन तथा बौद्ध साहित्य में काशी का वर्णन जनपद के रूप में आता है और वाराणसी का उसकी राजधानी के रूप में। काशी के पूर्व में, गङ्गा के पूर्वी तट पर मगध की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। काशी के उत्तर में विदेह जनपद है और दक्षिण में कोशल / पश्चिम में वत्स जनपद था। रायगिह (सं. राजगृह) भगवान् महावीर ने यहां अनेक वर्षावास बिताये थे। यहीं पर 22 वें वर्षावास में महाशतक को श्रावक बनाया। जैन तथा बौद्ध साहित्य में राजगृह का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां का राजा श्रेणिक भगवान महावीर का परम भक्त था। बौद्ध साहित्य में इसका नाम बिम्बसार के रूप में मिलता है। इसकी चेलणा आदि रानियां तथा मन्त्री अभयकुमार भी महावीर के परम भक्त थे। बुद्धि-वैभव के लिए जैन साहित्य में अभयकुमार का सर्वोच्च स्थान है। रोहिणा चोर, धन्ना सार्थवाह आदि की कहानियां बड़ी-बड़ी संख्या में राजगृह से सम्बद्ध हैं। श्रेणिक का दूसरा पुत्र कुणिक या अजातशत्रु था। उसने पिता को कैद में डाल दिया और स्वयं गद्दी पर बैठ गया। आसपास के जनपदों को जीतकर उन्हें मगध साम्राज्य में मिला लिया। इस समय इस स्थान का नाम राजगिर है। यह पटना से 70 मील तथा नालन्दा से 8 मील है। चारों ओर पर्वतों से घिरा हुआ है। प्राचीन काल में यह स्थान अत्यन्त महत्व का था तथा विभिन्न व्यापारिक मार्ग यहीं से होकर जाते थे। सावत्थी-भगवान् महावीर २३वें वर्षावास के लिए श्रावस्ती आये और नन्दिनीपिता को श्रावक बनाया, दसवां श्रावक सालिहीपिता भी यहीं का निवासी था। यह नगरी राप्ती (सं. इरावती) नदी के तट पर बसी हुई थी। इसका वर्तमान नाम साहेत-महेत है। प्राचीन काल में यह कोशल की राजधानी | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 375 | परिशिष्ट

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