Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 350
________________ कालं किच्चा अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइ-वास-सहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिसि" || 255 / / छाया ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको रेवत्या गाथापल्या द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तः सन् आशुरुप्तः 4 अवधिं प्रयुक्ते प्रयुज्यावधिना आभोगयति, आभोग्य रेवती गाथापलीमेवमवादीत्"हंभोः रेवती! अप्रार्थित प्रार्थिके! ४–एवं खलु त्वमन्तः सप्तरात्रस्यालसकेन व्याधिनाऽभिभूतासती आतंदुःखार्त्त-वशार्ता असमाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वाऽधोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां लोलुपाच्युते नरके चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोत्पत्स्यसे।" शब्दार्थ तए णं से महासयए समणोवासए—तदनन्तर वह महाशतक श्रमणोपासक, रेवईए गाहावइणीए-रेवती गाथापत्नी के, दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे द्वारा दूसरी और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर, आसुरुत्ते ४—यावत् क्रुध हो गया, ओहिं पउंजइ–तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, पउंजित्ता प्रयोग करके, ओहिणा आभोएइ–अवधिज्ञान के द्वारा देखा, आभोइत्ता देख करके, रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-रेवती गाथापत्नी को इस प्रकार कहा, हं भो रेवई! हे रेवति! अपत्थिय-पत्थिए 4! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाली, एवं खलु इस प्रकार, तुमं—तू, अंतो सत्तरत्तस्स—सात रात्रि के अन्दर, अलसएणं वाहिणा अभिभूया—अलसक नामक व्याधि से पीड़ित होकर, अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा चिन्तित, दुखी तथा विवश होकर, असमाहिपत्ता-असमाधि (कष्ट-रोग) को प्राप्त होकर, कालमासे कालं किच्चा–समय आने पर मरकर, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे, लोलुयच्चुए नरए लोलुपाच्युत नरक में, चउरासीइवास-सहस्सदिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिसि—चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारकियों में नारकी के रूप में उत्पन्न होगी। भावार्थ महाशतक ने अवधिज्ञान द्वारा उपयोग लगाकर देखा और कहा “तू सात दिन के अन्दर अलस रोग से पीड़ित होकर कष्ट भोगती हुई मर जाएगी और लोलुपाच्युत नरक में उत्पन्न होगी!'' वहां 84 हजार वर्ष की आयु प्राप्त करेगी। रेवती का भयभीत होकर लौटना- . मूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी—“रुढे णं ममं महासयए समणोवासए, हीणे णं ममं महासयए समणोवासए, अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नज्जइ णं, अहं केणवि कुमारेणं मारिज्जिस्सामि" त्ति कटु भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सणियं 2 पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय जाव ज्झियाइ // 256 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 345 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन

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