Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 376
________________ उपासकदशाङ्ग प्रस्तुत सूत्र का नाम उवासगदसाओ है। साधारणतया इसे उपासकदशाङ्ग कहा जाता है। अङ्गसूत्रों में गणना होने के कारण इसके साथ 'अङ्ग' पद जोड़ दिया गया है। शेष दो अर्थात्, 'उपासक' और 'दश' शब्द इसके प्रतिपाद्य विषय को प्रकट करते हैं। इसमें दस उपासकों का वर्णन है। उपासक शब्द संस्कृत की आस् उपवेशने धातु से पहले उप उपसर्ग लगाने पर बना है। इसी से उपासना शब्द भी बनता है। उपासक का अर्थ है उपासना करने वाला। उपासना का अर्थ है समीप बैठना। वेद तथा उपनिषदों में अग्नि, सूर्य, प्राण, प्रणव अर्थात् ओंकार, दहर अर्थात् हृदयाकाश आदि अनेक प्रकार की उपासनाओं का वर्णन है। वहां इसका यही अर्थ है कि अपने लक्ष्य का बार 2 चिन्तन करना और अन्य सब बातों से हटकर उसी के ध्यान में लगे रहना। किन्तु यहां इसका अर्थ है, अरिहन्त तथा साधुओं की उपासना करने वाला अर्थात् उनके समीप बैठकर धर्मकथा सुनने वाला | उपनिषत् शब्द भी इसी अर्थ को प्रकट करता है। नी पूर्वक शद् धातु का अर्थ है बैठना और 'उप' का अर्थ है समीप / इसी प्रकार का दूसरा शब्द 'उपोसह' है। इसका संस्कृत रूप है उपवसत्थ, अर्थात् पास में बसना / जब श्रावक व्रत लेकर कुछ समय के लिए मुनियों के पास रहने का निश्चय करता है तो उसे 'उपवसत्थ' कहा जाता है। उपवास' शब्द भी इसी अर्थ को लिए हुए है किन्तु वहां आचार्य या गुरु के स्थान पर आत्मा अर्थ लिया जाता है। उपवास का अर्थ है, भोजन आदि बाह्य व्यापार छोड़कर निरन्तर आत्मचिन्तन में लीन रहना। 'उपस्थिति' शब्द भी इसी अर्थ को प्रकट करता है। ___ अड्ढे जाव अपरिभूए-जिस प्रकार अग्निशिखा से प्रज्वलित तथा वायु रहित स्थान में रखा हुआ दीप प्रकाश देता रहता है उसी प्रकार आनन्द भी प्रदीप्त अर्थात् दूसरों के लिए प्रकाश-दाता था। उसके पास जो सम्पत्ति थी उसकी तुलना तेल और बत्ती से की गई है। उदारता, गंभीरता आदि गुणों की शिखा से और दीप्ति से / और मर्यादा पालन की वायु रहित स्थान से / तेजस्वी जीवन के लिए इन सब बातों की आवश्यकता है अर्थात् उसके तीन तत्व हैं—वैभव, सद्गुण, और मर्यादापालन, इसी जीवन को 'आय' शब्द से प्रकट किया गया है। दूसरा विशेषण 'अपरिभूत' है। इसका अर्थ है परिभव या अनादर का न होना। जो व्यक्ति सम्पन्न सद्गुणी, तथा मर्यादा में स्थिर है उसका कहीं तिरस्कार नहीं होता। आढ्यता और अपरिभव आदर्श गृहस्थ के मूल तत्त्व हैं। - तस्स णं आणंदस्स—प्रस्तुत सूत्र में आनन्द गाथापति की सम्पत्ति का वर्णन किया गया है, उसके पास बारह कोटि सुवर्ण था। चार कोटि कोष में संगृहीत तथा चार वृद्धि के लिए व्यापार में लगा हुआ था, और चार गृह सामग्री में। यह विभाजन तत्कालीन अर्थ व्यवस्था को सूचित करता है। इसका श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 371 / परिशिष्ट

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408