Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 308
________________ येनैव पोलासपुरं नगरं तेनैवोपागच्छति, उपागत्य पोलासपुरं नगरं मध्यं-मध्येन येनैव स्वकं गृहं येनैवाग्निमित्राभार्या - तेनैवोपागच्छति, उपागत्याग्निमित्रां भार्यामेवमवादीत्— “एवं खलु देवानुप्रिये! श्रमणो भगवान् महावीरो यावत् समवसृतः, तद्गच्छ खलु त्वं श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दस्व, यावत्पर्युपास्स्व श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपद्यस्व / " शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए—वह आजीविकोपासक सद्दालपुत्र, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए–श्रमण भगवान् महावीर के समीप, धम्मं सोच्चा निसम्म धर्म को सुनकर हृदयंगम करके, हट्ट-तुट्ठ जाव हियए—मन में प्रसन्न तथा संतुष्ट हुआ, जहा आणंदो तहा गिहिधम्मं पडिवज्जइ—आनन्द की तरह गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया, नवरं केवल इतना अन्तर है कि, एगा हिरण्ण कोडी निहाण-पउत्ता—उसके पास एक करोड़ सुवर्ण कोष में, एगा हिरण्ण-कोडीवुड्डि-पउत्ता एक करोड़ व्यापार में, एगा हिरण्ण-कोडी पवित्थर-पउत्ता—और एक करोड़ गृह तथा उपकरणों में रखने की मर्यादा की। एगे वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं इस प्रकार दस हजार गायों का एक व्रज रखा, जाव—यावत्, समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ–श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता वन्दना नमस्कार करके, जेणेव पोलासपुरे नयरे जहां पोलासपुर नगर था, तेणेव उवागच्छइ—वहां आया, उवागच्छित्ता—आकर, पोलासपुर नयरं मज्झं मज्झेणं—पोलासपुर नगर के बीचों बीन्न होता हुआ, जेणेव सए गिहे—जहां अपना घर था, जेणेव अग्गिमित्ता भारिया—जहां अग्निमित्रा भार्या थी, तेणेव उवागच्छइ वहां आया, उवागच्छित्ता—आकर, अग्गिमित्तं भारियं—अग्निमित्रा भार्या से, एवं वयासी इस प्रकार बोला—एवं खलु देवाणुप्पिए! हे देवानुप्रिये! समणे भगवं महावीरे—श्रमण भगवान् महावीर, जाव समोसढे यावत् समवसृत हुए हैं, तं गच्छाहि णं तुमं—इसलिए तुम जाओ, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर को, वंदाहि-वन्दना करो, जाव पज्जुवासाहि—यावत् पर्युपासना करो, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए श्रमण भगवान् महावीर के पास, पंचाणुव्वइयं—पांच अणुव्रत, सत्तसिक्खावइयं और सात शिक्षाव्रतरूप, दुवालसविहं—बारह प्रकार के, गिहिधम्म पडिवज्जाहि-गृहस्थ धर्म को स्वीकार करो। भावार्थ इस पर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने हर्ष और सन्तोष का अनुभव किया। उसने भी आनन्द की भांति गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। इतना ही अन्तर है कि उसके पास एक करोड़ सुवर्ण कोष में थे, एक करोड़ व्यापार में और एक करोड़ गृह और उपकरणों में लगे हुए थे। दस हजार गायों का एक व्रज था। सद्दालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर को पुनः वन्दना नमस्कार किया और पोलासपुर नगर में से होता हुआ अपने घर पहुंचा। वहां जाकर अग्निमित्रा भार्या से कहा हे श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 303 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन

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