Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 326
________________ सद्दालपुत्र !, से जहानामए केइ पुरिसे-जैसे अज्ञात नाम वाला कोई पुरुष, तरुणे—जवान, बलवं—बलवान, जुगवं—युग वाला अर्थात् युगपुरुष, जाव—यावत्, युवा—निरोग तथा दृढ़ कलाई, हाथ-पैर, पसवाडे, पीठ तथा जंघाओं वाला हो, निउण सिप्पोवगए—निपुण और कला कौशल का जानकार यदि, एगं महं अयं वा—एक महान् काय वाले बकरे को, एलयं वा—अथवा मेढ़े को, सूयरं वा—अथवा सूअर को, कुक्कुडं वा—अथवा मुर्गे को, तित्तिरं वा—अथवा तीतर को, वट्टयं वा—अथवा बटेर को, लावयं वा—अथवा लावक पक्षी (चिड़िया) को, कवोयं वा—अथवा कबूतर को, कविंजलं वा कपिंजल को, वायसं वा—अथवा कौए को, सेणयं वा—अथवा बाज को, हत्थंसि वा हाथ अथवा पायंसि वा—पैर को, खुरंसि वा, पुच्छंसि वा खुर अथवा पूंछ को, पिच्छंसि वा—पंख, सिंगंसि वा सींग अथवा विसाणंसि वा विषाण, रोमंसि वा अथवा रोमों को, जहिं जहिं गिण्हइ–जहाँ-जहाँ से भी पकड़ता है, तहिं तहिं निच्चलं निप्पंदं धरेइ-उसे वहीं वहीं निश्चल और निःस्पन्द कर देता है। अर्थात् उसे तनिक भी इधर-उधर हिलने नहीं देता, एवामेव—इसी तरह, समणे भगवं महावीरे–श्रमण भगवान् महावीर, ममं—मुझको, बहूहि अठेहि य—बहुत से अर्थों, हेऊहिं य हेतुओं, जाव यावत्, वागरणेहि य–व्याकरण—प्रश्नोत्तरों द्वारा, जहिं जहिं गिण्हइ-जहाँ-जहाँ निगृहीत करते हैं अर्थात् पकड़ते हैं, तहिं-तहिं—वहीं मुझे, निप्पट्ठपसिण वागरण करेइ–निरुत्तर कर देते हैं, से तेणट्टेणं सद्दालपुत्ता ! इसलिए हे सद्दालपुत्र !, एवं वुच्चइ–मैं कहता हूँ कि, नो खलु पभू अहं—मैं समर्थ नहीं हूँ, तव धम्मायरिएणं तुम्हारे धर्माचार्य, जाव—यावत्, महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए भगवान महावीर के साथ विवाद करने में। - भावार्थ श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा—'हे देवानुप्रिय ! तुम इस प्रकार विदग्ध, अवसर ज्ञाता, निपुण, नीतिज्ञ तथा सुशिक्षित हो। क्या तुम मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के साथ शास्त्रार्थ कर सकते हो ?" गोशालक ने कहा—“नहीं” “मैं नहीं कर सकता।" सद्दालपुत्र ने फिर पूछा—“हे देवानुप्रिय ! “क्यों ?" / __“सद्दालपुत्र ! जैसे कोई तरुण, बलवान, भाग्यशाली, युवा, नीरोग तथा दृढ़ कलाई, हाथ-पैर, पसवाडे, पीठ के मध्य भाग, जंघाओं वाला, कला-कौशल का जानकार-पुरुष किसी बकरे, मेढ़े, सूअर, कपिंजल, काक और बाज़ को हाथ, पैर, खुर, पूंछ पंख, सींग, दान्त, रोमादि जहाँ-जहाँ से भी पकड़ता है वहीं से निश्चल और निःस्पंद दबा देता है और उसे जरा भी हिलने नहीं देता। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर अनेक अर्थों, हेतुओं यावत् व्याकरणों एवं प्रश्नोत्तरों द्वारा जहाँ कहीं से भी मुझे पकड़ते हैं, वहीं-वहीं मुझे निरुत्तर कर देते हैं। हे सद्दालपुत्र ! इसलिये मैं कहता हूँ कि तुम्हारे धर्माचार्य भगवान् महावीर के साथ मैं शास्त्रार्थ करने मैं समर्थ नहीं हूँ।" मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी “जम्हा णं, देवाणुप्पिया! तुब्भे मम धम्मायरियस्स जाव महावीरस्स संतेहिं, तच्चेहि तहिएहिं श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 321 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन

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