Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 340
________________ छाया तंतः खलु तस्या रेवत्या गाथापल्या अन्यदा कदाचित्पूर्वरात्रापरत्रकालसमये कुटुम्ब यावद् अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ४–“एवं खलु अहमासां द्वादशानां सपलीनां विघातेन नो शक्नोमि महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजाना विहर्तुम्, तच्छ्रेयः खलु ममैता द्वादशापि सपत्नयोऽग्निप्रयोगेण वा, शस्त्रप्रयोगेण वा, विषप्रयोगेण वा जीविताव्यपरोपयित्वैतासामेकैकां हिरण्यकोटीमेकैकं व्रज स्वयमेवोपसम्पद्य महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् यावद्विहर्तुम् / " एवं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य तासां द्वादशानां सपत्नीनामन्तराणि च छिद्राणि च विवराणि च प्रतिजाग्रती विहरति / शब्दार्थ तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए तदनन्तर उस रेवती गाथा-पत्नी को, अन्नया कयाइ–अन्यदा कदाचित्, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि—अर्धरात्री में, कुडुम्ब जाव इमेयारूवे अज्झथिए—कौटुम्बिक बातों के लिए जागरण करते हुए यह विचार आया, एवं खलु अहं—इस प्रकार मैं, इमासिं दुवालसण्हं—इन बारह, सवत्तीणं विघाएणं—सपत्नियों के विघ्न के कारण, नो संचाएमि समर्थ नहीं हूं, महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं महाशतक श्रमणोपासक के साथ, उरालाई इच्छानुसार, माणुस्सयाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरित्तए—मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोग भोगती हुई विचरने में, तं सेयं खलु ममं तो मेरे लिए उचित है कि, एयाओ दुवालसवि सवत्तियाओ—इन 12 सपत्नियों को, अग्गिप्पओगेणं वा सत्थप्पओगेणं वा विसप्पओगेणं वा—अग्नि प्रयोग से, शस्त्र प्रयोग से अथवा विष प्रयोग के द्वारा, जीवियाओ ववरोवित्ता—जीवन से पृथक करके, एयासिं—इनकी, एगमेगं—एक-एक, हिरण्णकोडिं-करोड़ सुवर्ण मुद्राओं, एगमेगं वयं एक एक व्रज, सयमेव उवसंपज्जित्ता णं स्वयं अपने अधीन कर लूं तथा, महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं—महाशतक श्रमणोपासक के साथ, उरालाइं जाव विहरित्तए—स्वेच्छानुसार यावत् भोग भोगू, एवं संपेहेइ इस प्रकार विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं—उन 12 सपलियों के, अंतराणि य छिद्दाणि य—गुप्त छिद्रों और, विवराणि य–विवरों को, पडिजागरमाणी विहरइ–ढूंढने लगी। भावार्थ -रेवती गाथापली को अर्धरात्रि के समय कुटुम्ब जागरणा करते हुए यह विचार आया कि “मैं इन 12 सपनियों के विघ्न के कारण महाशतक श्रमणोपासक के साथ इच्छानुसार भोग नहीं भोग. सकती। अच्छा होगा कि इन सौतों को मार डालूं। प्रत्येक की एक-२ करोड़ सुवर्ण मुद्रा रूप सम्पत्ति तथा व्रजों पर अधिकार जमा लूं और महाशतक के साथ स्वेच्छानुसार काम भोगों का आनन्द लूं।" यह सोचकर वह उनके गुप्त विवरों तथा छिद्रों को ढूंढने लगी। रेवती द्वारा सपलियों की हत्या और सम्पत्ति का अपहरणमूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 335 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन

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