Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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________________ देवानुप्रिये ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं। तुम जाओ, उन्हें वन्दना-नमस्कार यावत् उनकी पर्युपासना करो। उनसे पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म स्वीकार करो। मूलम् तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तह' त्ति एयमढें विणएण पडिसुणेइ // 205 // ___छाया ततः खलु साऽग्निमित्रा भार्या सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तथेपि एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति। शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, सा अग्गिमित्ता भारिया उस अग्निमित्रा भार्या ने, सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स तहत्ति एयमढें—सद्दालपुत्र श्रमणोपासक के वचन 'तथेति' इस प्रकार कहकर, विणएण पडिसुणेइ–विनयपूर्वक स्वीकार किए। भावार्थ अग्निमित्रा ने सद्दालपुत्र के कथन को 'तथेति' कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बिय-पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी “खिप्पामेव, भो देवाणुप्पिया! लहुकरण-जुत्त-जोइय सम-खुर-वालिहाण समलिहिय-सिंगएहिं, जंबूणयामय-कलाव-जोत्त पइविसिट्ठएहिं रययामय-घंट-सुत्त-रज्जुग वरकंचण-खइय-नत्था-पग्गहोग्ग-हियएहिं, नीलुप्पल-कयामेलएहि, पवरगोण-जुवाणएहिं नाणा-मणि-कणग-घंटिया-जाल-परिगयं सुजाय-जुग-जुत्त-उज्जुग-पसत्थ-सुविरइय-निम्मियं पवर-लक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाण-प्पवरं उवट्ठवेह, उवठ्ठवित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह" || 206 // ___ छाया ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासकः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दापयति, शब्दापयित्वा एवमवादीत्-"क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! लघुकरणयुक्तयौगिकसमखुरवालिधानसमलिखितशृङ्गकाभ्यां जाम्बूनदमयकलापयोक्त्रप्रतिविशिष्टाभ्यां रजतमयघण्टसूत्र रज्जुकवरकाञ्चनखचितनस्ताप्रग्रहावगृहीतकाभ्यां नीलोत्पल कृताऽऽपीडकाभ्यां प्रवरगो युवाभ्यां नानामणि-कनकघण्टिकाजालपरिगतं सुजातयुगयुक्तर्जुकप्रशस्तसुविरचितनिर्मितं प्रवरलक्षणोपेतं युक्तमेव धार्मिकं यानप्रवरमुपस्थापयत, उपस्थाप्य ममैतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत / / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासए—उस श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने, कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ—कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, सद्दावित्ता एवं वयासी और बुलाकर इस प्रकार कहा खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही, लहुकरण शीघ्रगामी, जुत्तजोइय—ऐसे बैलों से युक्त, समखुरवालिहाण समलिहिय सिंगएहिं—जिनके खुर तथा पूंछ एक श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 304 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन
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