________________ (1) सेंध लगाकर चोरी करना। (2) बहुमूल्य वस्तु को बिना पूछे उठाना। (3) पथिकों को लूटना, गांठ खोलकर या जेब काटकर किसी की वस्तु निकालना। इसी प्रकार ताला खोलकर या तोड़कर दूसरे की वस्तु लेना / डाके डालना, गाय, पशु, स्त्री आदि को चुराना, राजकीय कर की चोरी करना तथा व्यापार में बेइमानी करना आदि सभी स्थूल चोरी के अन्तर्गत हैं। प्रस्तुत व्रत के अतिचारों में चोरी का माल खरीदना तथा चोरों को नियुक्त करके व्यापार चलाना तो सम्मिलित है ही, माप तोल में गड़बड़ करना तथा असली वस्तु दिखाकर नकली देना या बहुमूल्य वस्तु का मिश्रण करना भी चोरी माना गया है। प्रतीत होता है उन दिनों भी व्यापार में इस प्रकार की बेइमानी प्रचलित होगी। इसलिए अतिचारों में इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। __ स्वदारसन्तोष व्रत के अतिचारमूलम् तयाणंतरं च णं सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा—इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे, काम-भोगतिव्वाभिलासे // 48 // छाया तदनन्तरं च खुल स्वदारसन्तोषिकस्य पंचातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः तद्यथा—इत्वरिकपरिगृहीतागमनम्, अपरिगृहीतागमनम्, अनङ्ग-क्रीडा, परविवाहकरणम्, कामभोगतीव्राभिलाषः। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं—इसके अनन्तर, सदारसंतोसिए स्वदारसन्तोष रूप व्रत के, पंच अइयारा–पाँच अतिचार, जाणियव्वा—जानने चाहिएं, न समायरियव्वा परन्तु आचरण न करने चाहिएं,। तं जहा—वे इस प्रकार हैं—इत्तरियपरिग्गहियागमणे इत्वरिकपरिगृहीतागमन, अपरिग्गहियागमणे अपरिगृहीतागमन, अणंगकीडा—अनङ्गक्रीडा, परविवाहकरणे—परविवाह करण, कामभोगतिव्वाभिलासे और कामभोगतीव्राभिलाषा। भावार्थ तदनन्तर स्वदार-सन्तोषव्रत के पाँच अतिचार जानने चाहिएँ। परन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं—१. इत्वरिक परिगृहीतागमन—कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में स्वीकार की हुई स्त्री के साथ सहवास करना। 2. अपरिगृहीतागमन—अपरिगृहीता अर्थात् वेश्या, कन्या, विधवा आदि अविवाहिता स्त्री के साथ सहवास करना। 3. अनङ्गक्रीडा अर्थात् अप्राकृतिक मैथुन / 4. परविवाहकरण—अपनी सन्तान एवं स्वाश्रित कुटुम्बियों के अतिरिक्त अन्य स्त्री-पुरुषों के विवाह करना, पशुओं का परस्पर सम्बन्ध करना तथा दूसरों को व्यभिचार में प्रवृत्त करना। 5. कामभोगतीव्राभिलाष—कामभोग या विषयतृष्णा की उत्कटता / टीका श्रावक का प्रथम व्रत मानवता से सम्बन्ध रखता है। दूसरा और तीसरा व्यवहार-शुद्धि श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 116 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन