________________ यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है। देव ने भोजन, पानी आदि का उल्लेख नहीं किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि महावीर की परंपरा में निमंत्रित भोजन स्वीकार नहीं किया जाता था। यह परंपरा अब भी अक्षुण्ण है। निमन्त्रित भोजन को साधु के लिए दोषपूर्ण माना जाता है। इसके विपरीत बुद्ध तथा गोशालक के साधु निमंत्रित भोजन स्वीकार कर लेते थे। मूलम् तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 4 समुप्पन्ने–“एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलि-पुत्ते, से णं महामाहणे उप्पन्नणाण-दंसणधरे जाव तच्च कम्म-संपया-संपउत्ते, से णं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ / तए णं तं अहं वंदिस्सामि जाव पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं जाव उर्वनिमंतिस्सामि // 188 // छाया–ततः खलु तस्य सद्दालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्य तेन देवेनैवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः 4 समुत्पन्नः- “एवं खलु मम धर्माचार्यो धर्मोपदेशको गोशालो मङ्खलिपुत्रः, स खलु महामाहन उत्पन्नज्ञानदर्शनधरो यावत्तथ्य-कर्मसम्पदा सम्प्रयुक्तः स खलु कल्ये इह हव्यमागमिष्यति, ततः खलु तमहं वन्दिष्ये, यावत्पर्युपासिष्ये प्रातिहारिकेण यावदुपनिमन्त्रयिष्यामि।" - शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स—उस आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के, तेणं देवेणं—उस देव द्वारा, एवं वुत्तस्स समाणस्स—इस प्रकार कहे जाने पर, इमेयारूवे—यह, अज्झथिए 4 समुप्पन्ने विचार उत्पन्न हुआ—एवं खलु इस प्रकार, ममं मेरे, धम्मायरिए–धर्माचार्य, धम्मोवएसए—धर्मोपदेशक, गोसाले मंखलि-पुत्ते—गोशाल मंखलि-पुत्र हैं, से णं महामाहणे वे महामाहन हैं, उप्पन्नणाणदंसणधरे—अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक हैं, जाव तच्च-कम्म संपया संपेउत्ते—यावत् तथ्य-कर्म रूप संपत्ति के स्वामी हैं, सेणं कल्लं इहं हव्यमागृच्छिस्सइ वे कल यहां आएंगे, तए णं तं अहं वंदिस्सामि तब मैं उनको वन्दना करूंगा, जाव पज्जुवासिस्सामि यांवत् पर्युपासना करूंगा, पाडिहारिएणं जाव उवनिमंतिस्सामि प्रातिहारिकपीठ-फलक आदि के लिए यावत् निमन्त्रित करूंगा। .. भावार्थ—उस देव के ऐसा कहने पर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक गोशालक मंखलि-पुत्र, महामाहन, अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक यावत् तथ्य-कर्म रूप संपत्ति के स्वामी कल यहां आएंगे। मैं उन्हें वन्दना करूंगा यावत् उनकी पर्युपासना करूंगा। उन्हें प्रातिहारिक पीठ-फलकादि के लिए निमन्त्रित करूंगा।' मूलम् तए णं कल्लं जाव जलंते समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए / परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ // 186 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 261 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन