________________ अभीए निर्भयं, जाव यावत्, विहरसि—ध्यानावस्थित रहा, एवं इस प्रकार, वण्णगरहिया वर्णन रहित, तिण्णि वि उवसग्गा–तीनों उपसर्ग, तहेव पडिउच्चारेयव्वा तथैव उच्चारण करने चाहिएं, जाव—यावत्, देवो पडिगओ देव लौट गया, से नूणं कामदेवा हे कामदेव ! निश्चय से ही क्या, अढे समढे यह बात ठीक है?, हंता, अत्थि—हाँ, भगवन् ! यह ऐसे ही है। भावार्थ श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव श्रमणोपासक से पूछा- 'हे कामदेव! मध्यरात्रि के समय एक देव तुम्हारे पास प्रकट हुआ था! तदनन्तर उस देव ने एक विकराल पिशाचरूप की विक्रिया की और एक भयंकर नीलोत्पल के समान चमकती हुई तलवार लेकर तुम्हें इस प्रकार कहा—“हे कामदेव! यदि तू शीलादि व्रतों को भङ्ग नहीं करेगा यावत् प्राण रहित कर दिया जाएगा।" तू उस देव द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी निर्भय यावत् ध्यान में स्थिर रहा। इसी प्रकार वर्णन रहित-बिना किसी विशेष के तीनों उपसर्ग उसी प्रकार कहने चाहिएँ। यावद् देव वापिस लौट गया। हे कामदेव! क्या यह बात ठीक है?" कामदेव ने कहा " हां, भगवन् ! जो आपने फरमाया है वह ठीक है।" टीका भगवान् ने कामदेव तथा समस्त परिषद् को धर्मोपदेश दिया। अन्त में पूछा- “कामदेव! मध्यरात्रि के समय जब तुम धर्म-जागरण कर रहे थे, क्या तुम्हारे पास एक देव आया था?" भगवान् ने. देवकृत तीनों उपसर्गों का वर्णन किया। उत्तर में कामदेव ने विनयपूर्वक स्वीकृति प्रदान की। ____ मूलम् “अज्जो" इसमणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी—“जइ ताव, अज्जो! समणोवासगा गिहिणो गिहमज्झावसंता दिव्व-माणुस-तिरिक्ख-ज़ोणिए उवसग्गे सम्मं सहति जाव अहियासेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसंगं गणि-पिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्व-माणुसतिरिक्ख-जोणिए उवसग्गे सम्मं सहित्तए जाव अहियासित्तए // 118 // " _____ छाया हे. आर्याः! इति श्रमणो भगवान् महावीरो बहून् श्रमणान् निर्ग्रन्थाँश्च निर्ग्रन्थीश्चाऽऽमन्यैवमवादीत् “यदि तावदार्याः! श्रमणोपासकाः गृहिणो गृहमध्याऽऽवसन्तो दिव्यमानुष्यतैर्यग्योनिकानुपसर्गान् सम्यक् सहन्ते यावदध्यासन्ते, शक्याः पुनरार्याः! श्रमणैर्निर्ग्रन्थैदिशाङ्गगणिपिटकमधीयानैर्दिव्यमानुष्यतैर्यग्योनिकारुपसर्गाः सम्यक् सोढुं यावदध्यासितुम् / शब्दार्थ अज्जो इ हे आर्यो! (इस प्रकार सम्बोधन कर), समणे भगवं महावीरे—श्रमण भगवान् महावीर ने, बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य—बहुत से श्रमण निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को, आमंतेत्ता–आमन्त्रित करके, एवं वयासी इस प्रकार कहा—जइ ताव अज्जो हे आर्यो! यदि, समणोवासगा श्रमणोपासक, गिहिणो—गृहस्थ, गिहमज्झावसंता—गृहस्थ में निवास करते हुए भी, श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 226 / कामदेव उपासक, द्वितीय अध्ययन