________________ किसी को नहीं मारना चाहिए। किसी को नहीं सताना चाहिए। किसी को कष्ट या पीड़ा नहीं देनी चाहिए। जीवन के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन समता के आधार पर करते हुए उन्होंने कहा, जब तुम किसी को मारना, सताना या पीड़ा देना चाहते हो तो उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचो, जिस प्रकार यदि कोई तुम्हें मारे या कष्ट देवे तो अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार दूसरे को भी अच्छा नहीं लगता। उसी सूत्र में भगवान् ने फिर कहा है—अरे मानव ! अपने आपसे युद्ध कर, बाह्य युद्धों से कोई लाभ नहीं। इस प्रकार भगवान् महावीर ने अहिंसा के दो रूप उपस्थित किए। एक बाह्य रूप जिसका अर्थ है किसी प्राणी को कष्ट न देना। दूसरा आभ्यन्तर रूप है जिसका अर्थ है किसी के प्रति दुर्भावना न रखना, किसी का बुरा न सोचना / दशवैकालिक सूत्र में धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया है। इसका अर्थ है जो आदि, मध्य तथा अन्त में तीनों अवस्थाओं में मंगल रूप है वह धर्म है। साथ ही उसके तीन अंग बताए गए हैं—१. अहिंसा, 2. संयम, 3. तप। वास्तव में देखा जाए तो संयम और तप अहिंसा के ही दो पहलू हैं। संयम का सम्बन्ध बाह्य प्रवृत्तियों के साथ है और तप का आन्तरिक मलिनताओं या कुसंस्कारों के साथ। श्रावक के अणुव्रतों तथा शिक्षाव्रतों का विभाजन इन्हीं दो रूपों को सामने रखकर किया गया है। संयम और तप की पूर्णता के रूप में ही मुनियों के लिए एक ओर महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि उनकी सहायक क्रियाओं का विधान है और दूसरी ओर बाह्य आभ्यन्तर अनेक प्रकार की तपस्याओं का विधान है। पांच महाव्रतों में भी वस्तुतः देखा जाए तो सत्य और अस्तेय, बाह्य अहिंसा अर्थात् व्यवहार के साथ सम्बन्ध रखते हैं, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आन्तरिक अहिंसा अर्थात् विचार के साथ सम्बन्ध रखते हैं। _व्यास ने पातञ्जल योग के भाष्य में कहा है—“अहिंसा भूतानामनभिद्रोहः।" द्रोह का अर्थ है ईर्ष्या या द्वेष बुद्धि / उसमें मुख्यतया विचार पक्ष को सामने रखा गया है, जैन दर्शन विचार और व्यवहार दोनों पर बल देता है। 3. जैन दर्शन का सर्वस्व स्याद्वाद है, वह विचारों की अहिंसा है। इसका अर्थ है व्यक्ति अपने विचारों को जितना महत्व देता है दूसरों के विचारों को भी उतना दे, असत्य सिद्ध होने पर अपने विचारों को छोड़ने पर तैयार रहे और सत्य सिद्ध होने पर दूसरे के विचारों का भी स्वागत करे। जैन दर्शन का कथन है कि व्यक्ति अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार विभिन्न दृष्टिकोणों को भी उपस्थित करते हैं। वे दृष्टिकोण मिथ्या नहीं होते किन्तु सापेक्ष होते हैं। परिस्थिति तथा समय के अनुसार उनमें से किसी एक का चुनाव किया जाता है। इस चुनाव को द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है। उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थसूत्र' में हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा है-"प्रमत्तयोगात् | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 51 / प्रस्तावना