________________ सारा समय तपस्या और आत्म-चिन्तन में बिताने लगता है। उस समय वह ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार करता है और उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ अपनी चर्या को मुनि के समान बना लेता है। जब वह यह देखता है कि मन में उत्साह होने पर भी शरीर कृश हो गया है और बल क्षीण होता जा रहा है तो नहीं चाहता कि शारीरिक दुर्बलता मन को प्रभावित करे और आत्मचिन्तन के स्थान पर शारीरिक चिन्ताएं होने लगें। इस विचार के साथ वह शरीर का ममत्व छोड़ देता है। आहार का परित्याग करके निरन्तर आत्म-चिन्तन में लीन रहता है। जहां वह जीवन की इच्छा का परित्याग कर देता है, वहां यह भी नहीं चाहता कि मृत्यु शीघ्र आ जाए। जीवन और मृत्यु, सुख और दुख सबके प्रति समभाव रखता हुआ समय आने पर शान्त चित्त से स्थल शरीर को छोड़ देता है। श्रावक की इस दिनचर्या का वर्णन उपासकदशाङ्ग सूत्र के प्रथम आनन्द नामक अध्ययन में है। अब हम संक्षेप में इन व्रतों का निरूपण करेंगे। प्रत्येक व्रत का प्रतिपादन दो भागों में विभक्त है। पहला भाग विधान के रूप में है। जहां साधक अपनी व्यवहार मर्यादा का निश्चय करता है उस मर्यादा को संकुचित करना उसकी अपनी इच्छा एवं उत्साह पर निर्भर है किन्तु मर्यादा से आगे बढ़ने पर व्रत टूट जाता है। दूसरे भाग में उन दोषों का प्रतिपादन किया गया है जिनकी सम्भावना बनी रहती है और कहा गया है कि श्रावक को उन्हें जानना चाहिए किन्तु आचरण न करना चाहिए। श्रावक के लिए दिनचर्या के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है। उसमें वह प्रतिदिन इन व्रतों एवं संभावित दोषों को स्मरण करता है, किसी प्रकार का दोष ध्यान में आने पर प्रायश्चित्त करता है और भविष्य में उनके निर्दोष पालन की घोषणा करता है। इन सम्भावित दोषों को अतिचार कहा गया है। जैन शास्त्रों में व्रत के अतिक्रमण की चार कोटियां बताई गई हैं- . 1. अतिक्रम—व्रत का उल्लंघन करने का मन में ज्ञात या अज्ञात रूप से विचार आना | 2. व्यतिक्रम—उल्लंघन करने के लिए प्रवृत्ति / 3. अतिचार व्रत का आंशिक रूप में उल्लंघन / 4. अनाचार व्रत का पूर्णतया टूट जाना / ___ अतिचार की सीमा वहां तक है जब कोई दोष अनजान में लग जाता है, जानबूझकर व्रत भंग करने पर अनाचार हो जाता है। अहिंसा व्रत अहिंसा जैन परम्परा का मूल है। जैन धर्म और दर्शन का समस्त विकास इसी मूल तत्त्व को लेकर हुआ है। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने घोषणा की है कि जो अरिहन्त भूतकाल में हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं तथा जो भविष्य में होंगे उन सबका एक ही कथन है, एक ही उपदेश है, एक ही प्रतिपादन है तथा एक ही उद्घोष या स्वर है कि विश्व में जितने प्राणी, भूत, जीव या सत्व हैं, श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 50 / प्रस्तावना