________________ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स उपासकदशाग-सूत्रम् (उवासगदसाओ) प्रथम अध्ययन मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं णयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ // 1 // छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्। वर्णकम् / पूर्णभद्रचैत्यम् / वर्णकम् // शब्दार्थ तेणं कालेणं—उस काल / तेणं समएणं—उस समय अर्थात् अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरे के अन्तिम समय में। चम्पा नामं णयरी—चंपा नाम की नगरी थी। वण्णओ—नगरी का वर्णन अन्यत्र वर्णित नगरी के समान समझ लेना चाहिए। पुण्णभद्दे चेइए–नगरी के बाहर पूर्णभद्र यक्ष का चैत्य था। वण्णओ—यक्ष चैत्य का वर्णन भी अन्य चैत्यों के समान ही है। भावार्थ-उस समय अर्थात् प्रस्तुत अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरे के अन्त में चम्पा नाम की प्रसिद्ध नगरी थी। उसका वर्णन अन्य नगरियों के समान समझ लेना चाहिए। नगरी के बाहर पूर्णभद्र यक्ष का चैत्य था। टीका-इस सूत्र में धर्मकथानुयोग का वर्णन है। अर्थ के रूप में आगम का प्रतिपादन तीर्थंकर करते हैं। उसका सूत्र के रूप में गुम्फन गणधर करते हैं। समस्त आगम साहित्य चार अनुयोगों में विभक्त है। (1) चरणकरणानुयोग (2) धर्मकथानुयोग (3) गणितानुयोग तथा (4) द्रव्यानुयोग / प्रथम अनुयोग में 5 महाव्रत, 10 श्रमणधर्म, 17 प्रकार के संयम, 10 वैयावृत्य, 6 ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ, ज्ञानादि तीन रत्न, 12 प्रकार का तप तथा चार कषायों के निग्रह आदि का वर्णन है। 4 पिण्डविशुद्धियाँ, 5 समितियां, 12 भावनाएँ, 12 प्रतिमाएँ, 5 इन्द्रियों का निग्रह, 25 प्रकार की प्रतिलेखना, 3 गुप्तियाँ, 4 प्रकार के अभिग्रह भी चरणकरणानुयोग में आते हैं। आचाराङ्ग, आदि सूत्र इसी अनुयोग का प्रतिपादन करते हैं। धर्मकथानुयोग में ज्ञाताधर्मकथाङ्ग (नायाधम्मकहाओ), उपासकदशाङ्ग (उवासगदसाओ), अन्तकृद्दशांग (अन्तगडदसाओ), अनुत्तरोपपातिक (अणुत्तरोववाई), विपाक (विवाग), औपपातिक (उववाई), राजप्रश्नीय (रायप्पसेणीय), पांच निरयावलिकादि | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 71 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन