________________ जैन साहित्य में श्रावक शब्द के दो अर्थ मिलते हैं। पहला, 'शू' धातु से बना है, जिसका अर्थ है सुनना | जो सूत्रों का श्रवण करता है और तदनुसार चलने का यथाशक्ति प्रयत्न करता है वह श्रावक है। श्रावक शब्द से साधारणतया यही अर्थ ग्रहण किया जाता है। प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में श्रावकों द्वारा स्वयं शास्त्राध्ययन की परिपाटी नहीं रही। यत्र-तत्र साधुओं के अध्ययन और उन्हें पढ़ाने वाले वाचनाचार्य का वर्णन मिलता है। अध्ययन करने वाले साधुओं की योग्यता तथा आवश्यक तपोऽनुष्ठान का विधान भी किया गया है। इसका दूसरा अर्थ 'श्रा-पाके' धातु के आधार पर किया जाता है। इस धातु से संस्कृत रूप ‘श्रापक' बनता है जिसका प्राकृत में 'सावय' हो सकता है। किन्तु संस्कृत में 'श्रावक' शब्द के साथ इसकी संगति नहीं बैठती। इस शब्द का आशय है वह व्यक्ति, जो भोजन पकाता है। श्रावक के लिए बारह व्रतों का विधान है। उनमें से प्रथम पांच अणु-व्रत या शील-व्रत कहे जाते हैं। अणु-व्रत का अर्थ है छोटे व्रत / साधु हिंसा आदि का पूर्ण परित्याग करता है अतः उसके व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। श्रावक उनका पालन मर्यादित रूप में करता है अतः उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं। शील का अर्थ है आचार। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच चारित्र या आचार की आधार शिला हैं। इसीलिए इनको शील कहा जाता है। बौद्ध साहित्य में भी इनके लिए यही नाम मिलते हैं। योग-दर्शन में इन्हें यम कहा गया है और अष्टांग योग की आधारशिला माना गया है और कहा गया है कि ये ऐसे व्रत हैं जो सार्वभौम हैं। व्यक्ति, देश, काल तथा परिस्थिति की मर्यादा से परे हैं अर्थात् धर्माधर्म या कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निरूपण करते समय अन्य नियमों की जांच अहिंसा आदि के आधार पर करनी चाहिए। किन्तु इन्हें किसी दूसरे के लिए गौण नहीं बनाया जा सकता। हिंसा प्रत्येक अवस्था में पाप है उसके लिए कोई अपवाद नहीं है। कोई व्यक्ति हो या कैसी ही परिस्थिति हो हिंसा पाप है और अहिंसा धर्म है, सत्य आदि के लिए भी यही बात है। किन्तु इनका पूर्णतया पालन वहीं हो सकता है जहां सब प्रवृत्तियां बन्द हो जाती हैं। हमारी प्रत्येक हलचल में सूक्ष्म या स्थूल हिंसा होती रहती है, अतः साधक के लिए विधान है कि उस लक्ष्य पर दृष्टि रखकर यथाशक्ति आगे बढ़ता चला जाए। साधु और श्रावक इसी प्रगति की दो कक्षाएं हैं। श्रावक के शेष सात व्रतों को शिक्षा-व्रत कहा गया है। वे जीवन में अनुशासन लाते हैं। इनमें से प्रथम तीन बाह्य अनुशासन के लिए हैं और हमारी व्यावसायिक हल-चल, दैनन्दिन रहन-सहन एवं शरीर संचालन पर नियंत्रण करते हैं और शेष चार आंतरिक शुद्धि के लिए हैं। इन दोनों श्रेणियों में विभाजन करने के लिए प्रथम तीन को गुणव्रत और शेष चार को शिक्षाव्रत भी कहा जाता है। ... इन बारह व्रतों के अतिरिक्त पूर्व भूमिका के रूप में सम्यक्त्व-व्रत है। जहां साधक की दृष्टि अन्तर्मुखी बन जाती है और वह आन्तरिक विकास को अधिक महत्व देने लगता है, इसका निरूपण पहले किया जा चुका है। बारह व्रतों का अनुष्ठान करता हुआ श्रावक आध्यात्मिक शक्ति का संचय करता जाता है। उत्साह बढ़ने पर वह घर का भार पुत्र को सौंपकर धर्म-स्थान में पहुंच जाता है और श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 46 / प्रस्तावना