________________ देते हैं अथवा उन पर कर आदि की व्यवस्था कर देते हैं, ऐसे राज्य के नियमों का उल्लंघन करना विरुद्धराज्यातिक्रम है। 4. कूटतुला-कूटमान—नाप तथा तोल में बेईमानी। 5. तप्रतिरूपक-व्यवहार—वस्तु में मिलावट या अच्छी वस्तु दिखाकर बुरी वस्तु देना / सत्य तथा अचौर्य व्रत के अतिचारों का व्यापार तथा व्यवहार में कितना महत्वपूर्ण स्थान है यह बताने की आवश्यकता नहीं। स्वदार-सन्तोष व्रत- श्रावक का चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है। इसमें वह परायी स्त्री के साथ सहवास का परित्याग करता है और अपनी स्त्री के साथ उसकी मर्यादा स्थिर करता है। यह व्रत सामाजिक सदाचार का मूल है, और वैयक्तिक विकास के लिए भी अत्यावश्यक है। इसके पांच अतिचार निम्न हैं 1. इत्वरिक परिगृहीतागमन-ऐसी स्त्री के साथ सहवास करना जो कुछ समय के लिए ग्रहण की गई हो। भारतीय संस्कृति में विवाह-सम्बन्ध समस्त जीवन के लिए होता है, ऐसी स्त्री भोग और त्याग दोनों में सहयोग देती है, जैसा कि आनन्दादि श्रावकों की पलियों के जीवन से सिद्ध होता है। इसके विपरीत जो स्त्री कुछ समय के लिए अपनाई जाती है वह भोग के लिए होती है, जीवन के उत्थान में सहायक नहीं हो सकती। श्रावक को ऐसी स्त्री के पास गमन नहीं करना चाहिए। 2. अपरिगृहीतागमन–वेश्या आदि के साथ सहवास / 3. अनंगक्रीडा—अप्राकृतिक मैथुन अर्थात् सहवास के प्राकृतिक अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से सहवास करना। 4. परविवाहकरण दूसरों का परस्पर सम्बन्ध कराना / 5. कामभोग-तीव्राभिलाष—विषय-भोग तथा काम-वासना में तीव्र आसक्ति / परविवाहकरण अतिचार होने पर भी श्रावक के लिए उसकी मर्यादा निश्चित है, अपनी सन्तान तथा आश्रित-जनों का विवाह करना उसका उत्तरदायित्व है। इसी प्रकार पशु-धन रखने वाले को गाय, भैंस आदि पशुओं का सम्बन्ध भी कराना पड़ता है, श्रावक को इसकी छूट है। परिग्रह-परिमाण व्रत - इसका अर्थ है श्रावक को धन-सम्पत्ति की मर्यादा निश्चित करनी चाहिए और उससे अधिक सम्पत्ति नहीं रखनी चाहिए। सम्पत्ति हमारे जीवन निर्वाह का एक साधन है। साधन वहीं तक उपादेय होता है जहां तक वह अपने साध्य की पूर्ति करता है, यदि सम्पत्ति सुख के स्थान पर दुखों का कारण बन जाती है और आत्मविकास को रोकती है तो हेय हो जाती है। इसीलिए साधु सम्पत्ति का सर्वथा त्याग करता है और भिक्षा पर जीवन निर्वाह करता है। वहां साधु वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों के साथ श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 57 / प्रस्तावना