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और पाण्डित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है । ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्त्व मिलते हैं वे लोक-तत्त्व कहलाते हैं ।" डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय के मत में "आधुनिक सभ्यता से दूर, अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने वाली, तथाकथित अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता को "लोक" कहते हैं जिनका आचार-विचार एवं जीवन परम्परागत नियमों से नियंत्रित होता है।" काका कालेलकर पारम्परिक जीवन जीने वाले गरीब ग्रामीणों को "लोक" मानते हैं।" महावीर प्रसाद उपाध्याय की दृष्टि में “वे लोग, जो सभ्य या सुसंस्कृत माने जाने वाले लोगों के रहन-सहन, शिक्षा-संस्कृति तथा जीवन-शैली से भिन्न प्राचीन परम्पराओं के प्रवाह में आदिम प्रवृत्तियों से संलग्न होकर अकृत्रिम, सरल या प्राकृतिक ढंग से जीवनयापन करते हैं..... 'चाहे नगर निवासी हों या ग्रामीण, लोक के अन्तर्गत आते हैं, यह लोक मानव का बहुसंख्यक वर्ग होता है। श्री लक्ष्मीधर वाजपेयी कहते हैं कि "लोक" से तात्पर्य "सर्वसाधारण जनता से है तथा दीन-हीन, दलित, शोषित, पतित, पीड़ित लोग और जंगली जातियां कोल, भील, संथाल, गोंड, नागा, शक, हूण, किरात, धुक्कस, यवन, खस, इत्यादि सभी लोक समुदाय मिलकर “लोक" संज्ञा को प्राप्त होता है।" डॉ० श्याम परमार ने साधारण जन-समाज को", डॉ० त्रिलोचन पाण्डेय ने उन सभी मानव-समूहों को जो नगर अथवा ग्राम में कहीं भी रहते हों"५, मदनमोहन सिंह ने जनसामान्य को तथा डॉ. हरगुलाल ने जनपद-निवासियों को "लोक" संज्ञा से अभिहित किया है।
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने ग्राम-जन" को "लोक" की संज्ञा दी है । हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकार डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार "लोक" शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। ये लोग नगर के परिष्कृत रुचि-सम्पन्न सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचिवाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारता को जिला (जिन्दा) रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं ।
"पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार सामाजिक वर्गीकरण की कल्पना दो रूपों में हुईउच्च वर्ग और निम्न वर्ग। निम्न वर्ग के व्यक्तियों से संबंधित समस्त विकारों एवं व्यापारों को "फोक-लोर" शब्द से आबद्ध किया गया ।"५० एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में (FOLK) की व्याख्या इस प्रकार की गयी है-"एक आदिम समाज में उस समुदाय के समस्त व्यक्ति "लोक" हैं और शब्द के व्यापक अर्थ में इसे एक सभ्य राज्य की समस्त जनसंख्या के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। इसके सामान्य प्रयोग में, पश्चिमी प्रकार की सभ्यताओं में (लोक-संगीत, लोक-साहित्य आदि शब्द-युग्मों में) उसको संकीर्ण अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है तथा इसमें वे ही लोग शामिल किये जाते हैं जो व्यवस्थित शिक्षा और नगरीय संस्कृति की धारा से बाहर हों, जो अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित तथा ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी हों ।'५१ कभी "लोक" जो समाज के भद्र ऊपरी वर्ग की तुलना में निचले वर्ग में आते हैं, उनके समूह को समझा गया। एक ओर उन्हें “सभ्यता खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१)
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