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पुस्तक समीक्षा
ग्रंथमाला-४६५)
१. मूकमाटी : - महाकाव्य (लोकोदय विद्यासागर | प्रथम संस्करण- १९८८ / मूल्य - ५०/- रु० प्रकाशक- भारतीय इस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-३ । पृष्ठ २४+४८८ ।
जैसलमेरी ( माडवी) भाषा में मनुष्य को माटी कहते हैं । "माटी केत ? " हे चेत ? " = हे मनुष्य तूं चेता कर । सावधान अर्थ - गौरव भरे हैं । बेकळू-बालू रेत धूल दूसरे शब्दों में वहां माटी चैतन्य है । सुसंस्कारित
मनुष्य तूं कहां जा रहा है । और हो । - ये दो वाक्य छोटे होने पर hari माया मिट्टी नहीं कहते है ।
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"माटी
भी
कवि के शब्दों में भी 'सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग के शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रवण-संस्कृति को जीवित रखना है और इसका नामकरण हुआ है मूकमाटी ।'
"मढ़िया जी (जबलपुर) में / द्वितीय वाचना का काल था / सृजन का अथ हुआ और / नयनाभिराम नयनागिरि में / पूर्ण पथ हुआ । समवसरण मंदिर वना / जब गजरथ हुआ ।" अर्थात् श्री पिसनहारी मढ़िया जी ( जबलपुर - मध्यप्रदेश) और श्री नयनागिरिजी ( छतरपुर - मध्यप्रदेश) की पुण्यभूमि को संबोधित करके यह काव्य रचा गया और दूध में से घी की तरह मूकमाटी से काव्य तत्त्व प्रकट हुआ है जो श्रमण संस्कृति के शाश्वत सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना करता है ।
'मूकमाटी' में चार खंड हैं : १. संकर नहीं वर्णलाभ २. शब्द सो बोध नहीं, बोध सो शोध नहीं ३. पुण्य का पालन : पाप प्रज्ञालन और ४. अग्नि की परीक्षा, चांद सी राख । इन चारों खड़ों का विधान और सम्पूर्ण काव्य का वितान लगभग ५०० पृष्ठों है जो परिमाण की दृष्टि से महाकाव्य की सीमाओं को छूता है । हालांकि महाकाव्य की अपेक्षाओं के अनुरूप शास्त्रीय समीक्षा में "मूकमाटी" खरा नहीं उतरता किन्तु उसमें माटी नायिका है, कुम्भकार नायक है, आध्यात्मिक रोमांस है, प्राकृतिक परिवेश है, शब्दालंकार, अर्थालंकारों के मोहक संदर्भ हैं और शब्द का, व्याकरण की सान पर तराशा नया नया अर्थ है । जैसेः
"युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है / कुम्भकार | 'कु' यानी धरती / ओर / 'भ' यानी भाग्य | यहां पर जो / भाग्यवान् / भाग्य विधाता हो
कवि - आचार्य ज्ञानपीठ, १८,
खण्ड १७, अंक ३ ( अक्टूबर-दिसम्बर, ६१ )
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