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हैं वे सिद्धात्माएं हैं । वे न आत्मारंभी हैं, न परारंभी, न उभयारंभी । बे अनारंभी हैं ।
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जो संसार समापन्नक जीव हैं वे दो प्रकार के हैं-संयत, असंयत । असंयत जीव अविरति की अपेक्षा से आत्मारंभी भी हैं, परारंभी भी हैं और उभयारंभी भी । वे अनारंभी नहीं हैं । जो संयत जीव हैं वे दो प्रकार के हैं-प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत । जो अप्रमत्त संयत हैं वे न आत्मारंभी हैं, न परारंभी, न उभयारंभी । वे अनारंभी हैं । जो प्रमत्त संयत हैं वे शुभ योग की अपेक्षा से न आत्मारंभी है, न परारंभी, न उभयारंभी वे अनारंभी हैं । अशुभ योग की अपेक्षा से प्रमत्त संयत आत्मारंभी भी हैं, परारम्भी और उभ यरम्भी भी हैं । वे अनारम्भी नहीं हैं ।
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इसी प्रकरण में कुछ आगे कृष्ण लेश्यी जीवों के संबंध में जिज्ञासा करते हुए गौतम स्वामी ने पूछा – प्रभो ! कृष्ण लेश्यी जीव, आत्मारम्भी, परारम्भी, उभयारम्भी हैं या अनारम्भी ? भगवान् ने गौतम की इस जिज्ञासा के समाधान में औधिक सर्व समान्य पाठ की तरह ही सारा निरूपण किया । इतना विशेष कि उसमें प्रमत्त अप्रमत्त भेद नहीं किये । क्योंकि अप्रमत्त संयत में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं प्राप्त ही नहीं होतीं । वे सिर्फ प्रमत्त संयत में ही प्राप्त होती हैं । संयत मात्र में प्राप्त नहीं होती - इसलिए इस वक्तव्य में प्रमत्त अप्रमत्त भेद करने अपेक्षित नहीं थे ।
इस वक्तव्य में औधिक पाठ में दिये गये संसार समापन्नक जीवों के प्रमत्तअप्रमत्तभेद से पूर्व जो संयत-असंयत भेद किये गये हैं वे गृहीत होंगे । आगमकार ने उन्हें गृहीत करने का निषेध नहीं किया है । अतः कृष्ण लेश्यी जीव संयत-असंयत दोनों ही प्रकार के होते हैं। अगर आगमकार के अभिमत में संयत मात्र में कृष्ण लेश्या का न होना होता तो वे इस वक्तव्य में " प्रमत्ताप्रमत्ता न भाणियब्बा" न कहकर "संजया न भाणिब्बा" कहते, पर ऐसा नहीं कहा गया । इससे साधु में कृष्ण लेश्या का भी होना स्पष्टतः सिद्ध है ।
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संदर्भ :
१. भगवती शतक I उद्देश- I
२. भगवती शतक २५ उद्देशक ६ पन्नवणा पद
३. भगवतीशतक २५ उद्देशक ६ लेखपद
४. भगवती शतक २५, उद्देशक ७ पन्नवणापद
५. कण्ह लेसाणं भंते ! णोरइया सच्चे समाहरा सम शरीरा सब्वेव पुच्छा, गोयमा ! जहां ओहिया णवंर णेरइथा वेदणाए, माई मिच्छ विट्ठी उवषण्णगाय अमायी सम्मदिट्ठी उवषण्णगाथ भाणियव्या । सेसं तहेवजहा ओहिताणं असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा ओहिया णवरं मणसाणं किरियाहि विसेसो जाव तत्थणं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता तंजहा संजया, असंजया, संज यासंजया जहा ओहियाण | पन्नवणा पद- १७-१३०.
६. आत्मारम्भी - स्वयं की हिंसा करने वला । उभयारम्भी— दोनों की हिंसा करने वाला । परारम्भो-दूसरे की हिंसा करने वाला । अनारम्भी किसी की हिंसा न करने वाला ।
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तुलसी प्रशा
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