________________
किन्तु आशावाद की नैसर्गिक प्रवृत्ति इन बादलों को दूर कर देती है।
__ भारतीय संस्कृति में निराशावाद के अभाव का साहित्यिक प्रमाण भी है । संस्कृत साहित्य में दुःखान्त नाटक नगण्य हैं । इसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के हृदय में आशा का संचार करना और आनन्द की उत्पत्ति करना है । इसीलिए संस्कृत साहित्य में दुःखमय अन्त दिखाना अच्छा नहीं माना गया है । अतः निराधार ही भारतीय दर्शन को जीवन का निषेधक कहना उचित नहीं है।
भारतीय दार्शनिकों ने अविद्या को दुःख का मूल माना है । दुःख विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान, विद्या अथवा तत्त्वज्ञान) से ही दूर हो सकते हैं । जैन, बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि सभी दर्शनों का उद्देश्य दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति कर अपवर्ग, मोक्ष, कैवल्य अथवा निर्वाण पाना है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का यथाशक्ति अथवा पूर्ण पालन, तत्त्वज्ञान, विभिन्न साधनाएं निर्मल भक्ति आदि व्यक्ति को नैतिक उच्चता एवं आत्मोन्नति के मार्ग पर ले जाती हैं। आत्मानुभूति होने पर सांसारिक वस्तुओं की लालसा नहीं रहती और व्यक्ति के आकर्षण के केन्द्र बदल जाते हैं । दासगुप्ता भारतीय आध्यात्मवाद के सार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "दुःख हमें नहीं डरा सकते हैं यदि हम याद रखें कि यथार्थत: हम दु:खरहित हैं। निराशावादी दृष्टिकोण, अपने आत्मा में आशावादी विश्वास, भाग्य और मोक्ष के लक्ष्य पर समाप्त होने से, सारे भय को दूर कर देता है ।"१७ भारतीय दर्शन का दुःखवाद, आशावाद में समाप्त होता
स्पष्ट हैं कि भारतीय दर्शनों द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को किसी ने आत्महत्या, दूसरों का अनिष्ट एवं दुष्कर्म करते हुए नहीं सुना होगा क्योंकि भारतीय दर्शन और धर्म ऐसी प्रवृत्ति को जघन्य मानता है। यह मानव को आत्मिक, मानसिक उन्नति करने, तार्किक शक्ति बढ़ाने और मर्यादाशील बनने की प्रेरणा देता है । भारतीय दर्शन इस अर्थ में निराशावादी या दुःखवादी महीं है, जैसा कि कुछ लोग समझ बैठे हैं। संसार को दुःखमूलक मानने का तात्पर्य मुख्यतः संसार के प्रति अनासक्ति की भूमि को मजबूत करना है न कि लोगों को हताश करना । भारतीय दर्शन मानसिक कौतूहल ही नहीं हटाता है अपितु दुःख की सत्ता, कारण एवं निवृत्ति के उपायों को बताने के साथ ही राग-द्वेष दु:खादि रहित दिव्य जीवन की प्राप्ति को अन्तिम लक्ष्य बनाकर अपनी व्यावहारिक बुद्धि का स्पष्ट परिचय देता है।
कर्मवाद के पोषक भारतीय दर्शन पर अकर्मण्यता का आरोप सर्वथा असंगत है। भारतीय आध्यात्मवादी एकमत हैं कि कार्यकारणवाद प्रकृति का नियम है । अच्छे कार्यका परिणाम अच्छा और बुरे कार्य का परिणाम बुरा होता है । अपने सुख-दुःख, उन्नति एवं अवनति का उत्तरदायी व्यक्ति रवयं है, अपने कार्यों का परिणाम व्यक्ति को स्वयं भोगना होता है । " कर्म कैसे त्याज्य हो सकता है जबकि वह जीवन के स्पन्दन को अभिव्यक्त करता है । भारतीय दर्शनों ने निष्क्रिय रहने के लिए नहीं कहा है और न ही हाथ पर हाथ धरे बैठने की प्रेरणा दी है । गीता (२/४७) में स्पष्ट कहा गया है-"मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।" भारतीय दर्शन निष्काम (फल प्राप्ति की चिंता किए बिना) कर्म करने की प्रेरणा देता है । निष्काम कर्म का अर्थ- कर्मत्याग नहीं है अपितु फल की चिन्ता किए
१४८
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org