Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 61
________________ संयमधारी साधु में लेश्याएं : एक विवेचन संयमधारी साधुओं में तेजस्, पदम् और शुक्ल ये तीन भाव लेश्याएं प्राप्त होती हैं। कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं नहीं होती। यह भगवती प्रथम शतक प्रथम उद्देशक में कहा गया है किन्तु यह कथन अप्रमत्त संयत संयमधारी साधुओं के लिए है और सभी संयमधारी साधुओं के लिए नहीं कहा जा सकता। ___षष्ठम् गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत साधु में तो छहों लेश्याएं प्राप्त हो सकती हैं। सिर्फ तेजस्, पदम् और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं ही नहीं, कृष्णादि तीनों अशुभ लेश्याएं भी प्राप्त हो सकती हैं । क्योंकि षष्ठम् गुणस्थानवर्ती साधु में प्रमाद विद्यमान रहता है जो कि उस गुणस्थान के नाम "प्रमत्तसंयत" से ही अभिव्यक्त है । वह अनेक बार अनजान में या जान-बूझकर भी प्रमादात्मक प्रवृत्तियां कर लेता है। उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ स्वरूप कषाय भी विद्यमान है। वह कषायपूर्ण प्रवृत्तियों से भी सर्वदा मुक्त नहीं होता। उस प्रमत्तसंयत साधु में हिंसा आदि पांच आश्रवों को उभारने वाले अशुभ योग भी विद्यमान हैं। पंचम अंग सूत्र भगवई में इन्हीं अशुभ योगों की अपेक्षा से उसे आत्मारंभी, परारंभी और उभयारंभी बताया गया है तथा शुभ योगों की अपेक्षा से उसे अनारंभी भी बताया गया है। ___जबकि षष्ठम् गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत साधु में अशुभ योग का होना स्पष्टतः आगम-सम्मत है, तब भला अशुभ लेश्या उसमें क्यों नहीं हो सकती ? योग जौर लेश्या सहवर्ती है । अशुभ योगात्मक प्रवृत्ति करते समय साधु में लेश्या भी अशुभ होगी। जहां पर जिस समय अशुभ अध्यवसाय, अशुभ परिणाम, अशुभ योग हैं, वहां पर उस समय लेश्या भी अशुभ ही होगी। विवेचन आगम-प्रमाण को पुरस्सर करके अगर विवेच्य विषय पर चिन्तन करें तो अनेक आगमीय स्थलों में संयमधारी साधु में छ्व लेश्याओं का होना प्रतिपादित है । पंचम अंग सूत्र भगवई में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ बताये गये हैं—पुलाक, बुक्कस, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । उसके बाद पुलाक और बुक्कस के पांच-पांच भेद बताये गये हैं। फिर कुशील, निर्ग्रन्थ के लिए जिज्ञासा की गई तो भगवान् ने बताया-कुशील निर्ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं--प्रति सेवना कुशील और कषायकुशील । फिर निर्ग्रन्थ-स्नातक के भेदोपभेद भी बताए गये हैं ।। निरूपण के उसी क्रम में लेश्या के संदर्भ में भी प्रश्नावली चली है । गौतम स्वामी ने जिज्ञासा की-प्रभो ! कषायकुशील निर्ग्रन्थता सलेश्यी में प्राप्त होती है या अलेश्यी में ? भगवान् ने बताया-वह सलेश्यी में ही प्राप्त होती है, अलेश्यी में नहीं । खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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