Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ ८.१.२०६ में पहले ही निषेध कर दिया गया था कि त का द प्राकृत में नहीं होता है। सूत्र-८.३.७१ किमः कस्त्र-तसोश्च में भी कओ, कत्तो के साथ कदो का भी उदाहरण त के द का निषेध करते हुए उसी सूत्र [८.१.२०६] की वृत्ति में यह भी कह दिया कि [८.४.४४७ के अनुसार कभी-कभी व्यत्यय भी होता है अर्थात् त का द भी प्राकृत में मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि त का द नियमित नहीं परन्तु कभी-कभी सामान्य प्राकृत में मिलता है। सूत्र नं० ८.१.१७७ में भी कभी-कभी क का ग और च का ज होना बतलाया गया है और वहां पर भी इन्हें 'व्यत्यय' की कोटि में रखा है। तो क्या इसी सूत्र में त के क्वचित् द होने का उल्लेख नहीं किया जा सकता था ? भाषा शास्त्र की दृष्टि से यह प्रवृत्ति तो अघोष व्यंजनों के घोष बनने की है जो लोप की प्रवृत्ति से पूर्ववर्ती मानी जाती है । इस पूर्ववर्ती प्रवृत्ति का प्रभाव ही परवर्ती भाषा पर क्वचित् मिलता हो ऐसा प्रतीत होता है । क का ग, च का ज और त का द ये सब अघोष बनने की प्रक्रिया है जो महाराष्ट्री प्राकृत के पूर्व की कुछ प्राकृतों की लाक्षणिकताएं हैं। जब शौरसेनी और मागधी में त का द बनने का एक सूत्र ही दे दिया और ८.४.४४७ में 'व्यत्यय' सर्वव्यापी बना दिया गया तो फिर सामान्य प्राकृत में त=द के उल्लेख की क्या आवश्यकता थी और सामान्य प्राकृत में ही पं० ए० व० के विभक्ति प्रत्यय-दो और दु देने की क्या जरूरत थी । उनका उल्लेख शौरसेनी में ही उचित था जैसा कि उन्होंने उस भाषा में सं० भू० कृ० के लिए इण [८.४..२७१, २७२] व. काल. तृ० पु० ए० व० के प्रत्यय-दि--दे [८.४.२७३, २७४,२७५] का उल्लेख किया है और पंचमी ए० व० की विभक्ति--दो और–दु का भी उल्लेख [८.४.२७६] अलग से किया ही है। तद वाले इन सूत्रों का सामान्य प्राकृत में समावेश करके क्या उन्होंने एक प्राचीन परम्परा का ही अनुसरण नहीं किया है ? या जिस प्रकार क=ग के प्रयोग अर्धमागधी में अधिक मिलते हैं उसी प्रकार त -द के प्रयोग भी अर्धमागधी में रहे होंगे। अतः सामान्य प्राकृत में क=ग की तरह त-द का भी समावेश [भले ही 'व्यत्यय' के नियम से] कर दिया गया है । अर्धमागधी में त=द के और अघोष के घोष बनने के जो प्रयोग बच पाए हैं वे इस प्रकार दिए जा सकते हैं : इसिभासियाई ग्रन्थ से : भविदव्वं [३.१] ; पक्खिदा [३८.२३ पाठान्तर] तधेव [२५.१४]; तधा [४५.२६]; कधं [पृ० ५५.५] ; जधा [४०.१०;४५(५)] पृ० ५५.१३, १५, १८; सव्वधा [३५.१२; ३८.२६; ४५.२५] । अर्धमागधी आगम साहित्य की प्राचीन प्रतियों में भी ऐसे घोषीकरण के प्रयोग मिलते हैं । पू० जंबूविजयजी ने स्पष्ट कहा है कि मूल सूत्र एवं चूर्णि की प्रतियों में मिल रहे जधा और तधा के स्थान पर जहा और तहा पाठ लिये गए हैं [आचारांग, भूमिकापृ० ४४, म० ज० वि० संस्करण] । खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) ६५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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