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जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह, मैव नापर: ) जैसे विचारों के कारण भारतीय दर्शन जीवन का निषेधक, पलायनवादी, नैराश्यपूर्ण, अन्धकार में भटकाने वाला एवं काल्पनिक सुखी संसार की खोज में वर्तमान जीवन की सच्चाइयों को नकारने वाला दीख पड़ता है । किन्तु वह ऐसा नहीं है । वास्तव में भारतीय दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण है— संसार में सर्वत्र दु:ख की सत्ता का अनुभव | इसके विपरीत पाश्चात्य दर्शन की उत्पत्ति संसार के प्रति आश्चर्य से होती है । दुःख की सत्ता का अनुभव कर भारतीय दार्शनिकों ने दुःखों से मुक्ति को ही परम पुरुषार्थ माना है ।
निस्संदेह भारतीय दर्शन संसार को क्लेशबहुल मानकर, उससे सदा के लिए छुटकारा दिलाना चाहता है किन्तु इतने से ही किसी विचारधारा को निराशावादी और पलायनवादी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वहां एक नए जीवन एवं सुख की आशा भी विद्यमान है ।" भारतीय दर्शनों में संसार के दुःखमय स्वरूप की विवेचना की गयी है । इस दृष्टि से देखा जाए तो संसार का प्रत्येक दर्शन निराशावादी हो जाएगा क्योंकि किसी न किसी रूप में (भारतीय एवं पाश्चात्य) दोनों दर्शनों में भौतिक संसार की वर्तमान परिस्थितियों से असन्तोष, भोग, भोगातिरेक जन्यकष्ट एवं अनेक प्रकार की कठिनाईयां मानी गयी हैं । वर्तमान से असन्तोष ही सबल भविष्य का आधार है । सत्य तो यह है कि भारतीय दर्शनों ने संसार को रहने के अयोग्य और दुःखमय ही नहीं समझा है अपितु इससे आगे वे कहते हैं कि संसार में दुःख है और व्यक्ति दुःखरहित, इससे अच्छी स्थिति पा सकता है ।" भारतीय दर्शन दुःखों के कारण, उन्हें दूर करने के उपाय एवं आनन्द प्राप्ति के मार्ग भी बताता है । इसीलिए सांख्य दर्शन विचारशास्त्र की प्रवृति का एकमात्र कारण, दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के उपाय खोजना स्वीकार करता है । संसार को दुःखमय बताने का अभिप्रायः वर्तमान जीवन के प्रति असन्तोष की अभिव्यक्ति है और इसमें मानव के सुखद भविष्य का संकेत भी अन्तर्निहित है ।
भारतीय दर्शन दैवी अन्याय को अपने कष्टों का उत्तरदायी नहीं ठहराता, न ही आत्महत्या एवं निष्क्रियता की प्रवृत्ति को प्रेरित करता है । भारतीय मान्यता के अनुसार अपने कष्टों का दोष दैवी शक्ति पर लगाकर आत्महत्या कर एवं निष्क्रिय रहकर दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता है क्योंकि कष्ट एवं समस्याएं इस जीवन में ही नहीं अगले जन्मों में भी आती रहेंगी ।' अतः इनकी जड़ काटना के उत्तरदायी प्राणी स्वयं हैं और निष्क्रिय रहना जीवों के प्रतिक्षण मानसिक, वाचिक और कायिक – कुछ न कुछ चेष्टा पुनः दुखों और जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है ।
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आवश्यक है । अपने दुःखों
लिए असम्भव है ।" हम
करते रहते हैं, आत्महत्या
मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य के विषय में भारतीय दर्शन पूर्णतः आशावादी है । दुःखों एवं जन्म-मृत्यु के कष्टों से सदा के लिए छुटकारा पाकर सदैव के लिए एक आनन्दपूर्ण अपने आत्मा में स्थित, सुखद और दिव्य जीवन की प्राप्ति ही मोक्ष है ।' ज्ञान से उत्पन्न होने वाली ऐसी सर्वोत्कृष्ट स्थिति को पाना भारतीय अध्यात्मवाद का लक्ष्य है । इसे निराशावादी नहीं अपितु यथार्थवादी दृष्टिकोण ही कहा जा सकता है । शारीरिक दुःखों को शरीर से हटाना कठिन है किन्तु ये आत्मा को प्रभावित करना छोड़
तुलसी प्रज्ञा
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