Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ विषय में एक वैचारिक प्रवाह है और भारतीय दर्शन बौद्ध, जैन, न्याय, सांख्य, वेदान्त, व्याकरणादि अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित होता रहा है । वैज्ञानिक उन्नति होने से इनमें कोई परिवर्तन नहीं आया है । गीता और उपनिषदादि मानव को पूर्ववत् प्रभावित करते रहे हैं। भारतीय दर्शन ने जीवन के नवीन विषयों की विवेचना करने में भी कभी असमर्थता नहीं जतायी है। संदर्भ १. (क) The six systems of Indian philosophy, Max muller, p. 106 (ख) A History of Indian philosophy, Das Gupta, V.I p.75 (ग) भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ५३६-५४० २. द्रष्टव्य-दीर्घनिकाय, मज्झिम निकाय ३. (क) व्यास भाष्य, २०१५ (ख) न्याय-सूत्र' १३१२२१ ४. सांख्यकारिका-१ ५. योगसूत्र २॥३, और १५ ६. (क) वही, २।४ (ख) Yoga and personality, k.s, Joshi, P.31 (ग) आचारांगनियुक्ति, १८६ (घ) बृहदारण्यक भाष्य, वार्तिक, १८१ (ड) नैष्कर्म्य सिद्धि, २०६६ (च) न्याय-सूत्र, ११११२ परभाष्य ७. Dr. Radhakrishnan (Quoted in) Indian philosophy, Vatsyayan, P-8 5. Outlines of Indian philosophy, M. Hiriyanna, P.16 ६. भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० १२ १०. A History of Indian philosophy, DasGupta, V.J, P.76 ११. (क) गीता, ३।५ (ख) तत्त्ववैशारदी, पृ० १४१' (आनन्दाश्रम संस्करण) १२. (क) न्यायसूत्र, १११।२२, ४।२।३८-४६ (भाष्य सहित) (ख) सांख्यकारिका ६४ (ग) न्यायमञ्जरी, पृ० ७७ (घ) योगसूत्र, ३१३४ (ड) तत्त्वार्थ सूत्र, १०।२-३ १३. (क) कठोपनिषद्, २।३।१४ (ख) गीता, २१४७ (ग) योगवार्तिक, पृ० १४० १४. (क) उत्तराध्ययन, ३२।११ (ख) योगसूत्र, २।४८ (ग) गीता, १४०२१-२७, ४।२२,१२।१३ (घ) मनुस्मृति, ६१८०-८१ चौ० वाराणसी संस्करण १४. संस्कृत नाटककार, क्रान्ति किशोर भरतिया, पृ० ३, नाट्य संस्कृति सुधा, रमेश चंद्र शुक्ल, पृ० ४८ १६. कलुषित भावों, विचारों एवं आसक्ति से सदा के लिए मुक्त होना ही मुक्ति का वास्तविक अर्थ है। १७. A History of Indian philosophy, V.I. P.77 १८. CT. The mysteries of karma, revealed by a Brahmin yogee, Allahabad, 1898 १६. (क) गीता, २७१ (ख) प्रशस्तपाद भाष्य, पृ० १३६, किरणावली भास्कर, पृ० २१ २०. (क) गीता, ६।२०,१८८ (ख) मुक्तिकोपनिषद्, २।५।६ (ग) यथाकामो भवंति त ऋतुर्भवति, तत्कर्म कुरुते ।--वृहदारण्यकोपनिषद्, ४।४।५ २१. ब्रह्मसूत्र २।१।१४ पर शांकरभाष्य १५० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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