Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ १६. महावग्ग, P. ७५-७६ १७. प्रारम्भ में ज्ञति तृतीय कर्म का प्रचलन था - ज्ञप्ति, अनुश्रावण, और धारणा । बाद में चतुर्थ कर्म के रूप में अनुमति को जोड़ दिया गया । यही ज्ञप्ति चतुर्थ कर्म है- महावग्ग, वि० PP- २३ १८. उत्तराध्ययन, २६-७ १६. आवश्यक निर्युक्ति, मलय, १२१; भगवती आराधना, ४२७, नि० भाध्य ५६३३ २०. आवश्यक नियुक्ति, V-६६६; २१. मज्झिमनिकाय, १. P. १४-१५, महावग्ग, P.७५ २२. विनय पिटक, चीवर स्कन्धक २३. आचारांग, श्रुतस्कन्ध, २.५.११; मिलिन्दपञ्हो, ३६७, बृहत्कल्प, २.२४ २४. वेयण वेयावज्जे इरिएट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छट्ठे पुण धर्मांचिताए । उत्तराध्ययन, २६३३ २५. विनय पिटक, महावग्ग, भेसज्जखन्धक २६. मुलाचार, ४२७-४६५ २७. भाव पाहुड, १०१; मुलाचार, ४२१,४८२-८३ २८. अनगार धर्मामृत, ६.६३; मूलाचार, ३५,८११,६३७ २६. मूलाचार, ४३८-४४० ३०. राजवार्तिक, ६.६.१७ ३१. उत्तराध्ययन, द्वितीय अध्ययन, समवायांग २२, तत्त्वार्थसूत्र, ६.८ ३२. विक्खम्भये तानि परिस्सयानि सुत्तनिपात, ४.१६.१५ ३३. विसुद्धिमग्ग, धुताङ्गनिद्देस, PP-४८- ६७ ३४. प्रशभर तिप्रकरण, १४३ ३५. मूलाचार, ४२१; भगवती आराधना, ४२७; निशीथभाष्य, ५६३३ ३६. विनय पिटक, I १३७ ३७. अन्गुत्तर निकाय, I २०६ ३८. महावग्ग, P। १६७ ३६. देखिए, लेखक का गन्थ - "बौद्ध संस्कृति का इतिहास, PP. २०५-२२६ ४०. समवायांग २०; दशाश्रुतस्कण्ध i, उत्तराध्ययन, ३१.१४ ४१. मूलगुण की विभिन्न परम्पराओं के लिए देखिए - लेखक का ग्रन्थ--- "जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास, PP. २६४-५ खण्ड १७, अंक ३ ( अक्टूबर-दिसम्बर, ६१ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only १३१ www.jainelibrary.org

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