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लिये नियत हो, वहां पर उस शब्द के और अर्थ के सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला, वस्तु के सामान्य अंश और विशेष अंश की अपेक्षा से प्रवृत होने वाला नंगमनय कहलाता है।
"नैगमनय सामान्य विशेष का अवलम्बन करने वाला है। इस सम्बन्ध में सिद्धसेन गणी ने भाष्य की टीका करते हुये लिखा है कि घट का निरूपण करते समय सभी घटों की समानता को लेकर सामान्य घट का कथन किया जाता है तब समग्रग्राही नंगम नय कहा जाता है तथा घट की सुवर्णमय, रजतमय आदि विशेषता का कथन किये जाने पर देशग्राही नैगमनय कहा जाता है। ___महर्षि विद्यानन्दि तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार में नैगमनय की परिभाषा करते हुये लिखते हैं कि संकल्प मात्र का ग्राहक नैगमनय है । अथवा "नैकं गमो नैगमः" इस व्युत्पति के अनुसार जो धर्म और धर्मी में से एक अर्थ को ही नहीं जानता वरन् गौण-प्रधान भाव से धर्म-धर्मी दोनों को विषय करता है, वह नैगमनय है।' जैसे “जीव का गुण सुख है, या "जीव सुखी है" इस प्रकार से नैगमनय द्वारा धर्म व धर्मी दोनों की ज्ञप्ति हो जाती है।
यहां पर यह शंका नहीं करनी चाहिये कि धर्म-धर्मी दोनों को विषय करने वाला होने से नैगमनय, प्रमाण हो जायेगा; क्योंकि नैगमनय में धर्म-धर्मी में से एक की प्रधान और दूसरे की गौण रूप से ज्ञप्ति की जाती है। उपर्युक्त उदाहरण में "जीवगुणः सुखं" में विशेष्य सुख प्रधान है और जीव अप्रधान । जबकि "सुखीजीवः” में जीव प्रधान है और सुख अप्रधान ।
- विद्यानंदि के अनुसार की गई नैगमनय की प्रथम परिभाषा को पुष्ट करते हुए प्रायः वही भाव यूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तथा आचार्य भट्टाकलंक ने तत्त्वार्थराजवातिकालंकार में प्रस्फुटित किया है कि वास्तव में विद्यमान न होने पर भी, अपूर्ण अर्थ को संकल्प मात्र से ग्रहण करने वाला नैगमनय है।
नैगमनय के विषय में उपर्युक्त विवेचनानुसार शाब्दिक अन्तर को देखते हुये भी सभी कथनों में परस्पर विरोध परिलक्षित नहीं होता । तत्त्वार्थ के सत् अर्थात् विद्यमान भाव एवं असत् अर्थात् अविद्यमानभाव-की विशेषता की दृष्टि से श्वेताम्बर और १. "यदा हि स्वरूपतो धटमयं निरुपयति-तदा सामान्य घटं सर्वसमान- व्यक्त्या धितं घट इत्यभिधानप्रत्ययहेतुमाश्रयत्यतः समग्रमाहीति । तथा विशेषमपि सौवर्णो मृण्मयो राजतः श्वेतः इत्यादिकं विशेष निरूपयत्यतो देशग्राहीति भण्यते नैगमनयः ।" सिखसेन भाष्यटीका I. ३५ २. तक्नार्थश्लोकवातिकालंकार 1. ३३–टीकाश्लोक १७ । ३. वही-I. ३३ टीकाश्लोक २१. ४. "एकदेशोविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः" ५. तत्वार्थश्लोकवा• I. ३३ टीकाश्लोक २२ ६. सर्वार्थसिदि . ३३ ७. राजवा. I. ३३
तुलसी प्रज्ञा
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