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(३) स्यावस्तिनास्ति-अर्थात् कथञ्चित् अर्थ है भी और नहीं भी है। यहाँ पर जिस अपेक्षा से अर्थ की सत्ता और जिस अन्य अपेक्षा से अर्थ की असत्ता दोनों विद्यमान हों, उसका ज्ञान कर उस अर्थ का निर्णय करना चाहिये ।
(४) स्यादवक्तव्यम्-अर्थात् कथञ्चित् व्यन्जन अवक्तव्य (कहने योग्य नहीं) है । यहां पर जिस अपेक्षा से व्यन्जन की अबक्तव्यता हो उसका ज्ञान कर व्यन्जन का निर्णय करना चाहिये।
इसी प्रकार क्रमशः स्यादस्त्यवक्तव्यम्, स्यान्नास्त्यवक्तव्यम् तथा स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यम् इन तीन भंगों द्वारा भी अर्थ एवं व्यन्जन की तत्-तत् अपेक्षा का ज्ञान कर उसके तत्वार्थों का निर्णय करना चाहिये । निष्कर्षः
इस प्रकार तत्व और तत्वार्थ को अधिगम द्वारा, नय न्याय के सिद्धान्तों का पालन करते हुए, अपने ज्ञान रूप प्रमाणानुसार निर्णय करके समझने हेतु सप्तभंगी के सातों प्रश्नों की ज्ञान द्वारा जानकारी करके, रत्नत्रय आदि के स्वरूप में विद्यमान रहने वाले सत् एवं असत् की विशेषताओं को नय न्याय द्वारा समझने का जैन दर्शन में निरूपण किया गया है।
। यही कारण है कि यदि किसी एक द्रव्य-नय या व्यवहारनय अथवा अर्थनय या शब्द नय अथवा निश्चय नय या पर्यायनय के सद्भाव या असद्भाव को ही सम्पूर्ण तत्वार्थ का स्वरूप मानकर अन्यों की पूर्ण उपेक्षा कर दे, तो वह एकान्त मिथ्यात्व कहा जाता है । इसके विपरीत किसी भी एक नय को उसकी विवक्षा के अनुसार अन्यार्थों की उपेक्षा न करते हुए अर्थग्रहण करने योग्य माना जाना यथार्थ है।
एक नय के आश्रय से समस्त अर्थ को समझने रूप एकान्तमिथ्यात्व के सदृश ही गीता में भी कहा है
"यतु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहेतुकम् ।
अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ भगवद्गीता १५-२२ अर्थात् जो बिना किसी हेतु और तत्वार्थ के परिज्ञान के बिना भी यह समझ कर आसक्त रहता है कि “यही सब कुछ है" तो वह अल्प और तामस ज्ञान कहा गया है। __इसलिये इस विषय में जो सात अन्धे पुरुषों एवं हाथी का दृष्टान्त दिया जाता है, उसमें जनेतरों के प्रति आक्षेप करने का कोई लक्ष्य नही वरन् वह तो जैन एवं जैनेतर सभी उन अल्पज्ञाताओं के लिये है, जो अन्यार्थी की पूर्ण उपेक्षा करके केवल एकान्त का आश्रय लेते हैं।
इसी प्रकार सत् असत् की विशेषता को उपर्युक्त विवरणानुसार न जानने वाले एकान्त मिथ्यात्वियों के लिये उमास्वाति ने उन्मत की संज्ञा दी है-- "सदसदोरविशेषात् यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत्"
___ तत्वार्थसूत्र I. ३३ • खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१)
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