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जैन-नय-न्याय द्वारा तत्त्वार्थ-निर्णय
E डॉ० सुषमा सिंघवी
किसी भी वस्तु के वस्तुत्व युक्त अर्थ को समझना यथार्थ समझना है । यदि उससे भिन्न समझ लिया जाता है तो वह मिथ्या होता है, अत: प्रत्येक अर्थ को उसके तत्त्व से संयुक्त होने पर ही अर्थ मानना जिस न्याय के द्वारा निर्णय होता है वह न्याय ही मनुष्य को जन्मजन्मातर के बंधनों से मुक्त करके मोक्ष का अधिकारी बनाता है । जैन-दर्शन में मोक्ष-प्राप्ति में सहायक एवं अनिवार्य तत्त्व सम्यगदर्शन, सात तत्त्वों के यथार्थ अर्थ को समझकर उसके यथार्थ होने की श्रद्धा रखने को कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी अपने आध्यात्मिक ग्रन्थों में तत्त्वों का ही विशेष रूप से निरूपण किया है। द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय अथवा व्यवहार नय एवं निश्चय नय का अवलंबन लेकर कुन्दकुन्दाचार्य ने तत्त्वों का स्वरूप इतना स्पष्ट कर दिया है कि उसकी यथार्थ जानकारी एवं श्रद्धा होने पर शुद्धाचार का पालन कर मुमुक्षु अवश्य ही मोक्षगामी हो सकते हैं।
मोक्षमार्ग के साधन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सम्यग् दर्शन है। सम्यग्दर्शन के लिये सात तत्त्व तथा चार प्रकार के अर्थों में जो तत्त्व स्थित रहते हैं। उनको अधिगम से समझने हेतु तत्त्वार्थ श्रद्धा को नयन्याय के सिद्धान्तों से विश्लेषण कर पांचों ज्ञानों में से अपनी मति और श्रुत ज्ञान के अनुरूप निर्णय करने का विधान है। सप्त-तत्त्वों को समझने हेतु जैन दर्शन में दो उपाय
(१) निसर्ग और (२) अधिगम । तात्त्विक अर्थ को स्वयं समझ लेना और उसके यथार्थ होने का विश्वास कर लेना निसर्ग है और वास्तविक अर्थ की परीक्षा करना अधिगम।
अधिगम के दो प्रकार माने गये हैं:- (१) अनुयोग और (२) अनुगम ।
(१) अनुयोग के प्रकारों में किसी पदार्थ का ज्ञान उससे सम्बन्धित अन्य वस्तु द्वारा होता है । अनुयोग के निम्नलिखित छः भेद है:
(i) निर्देश-किसी तत्त्व के स्वरूप को बताने वाली परिभाषा को निर्देश कहते हैं । इस परिभाषा द्वारा वस्तु-तत्त्व का ज्ञान होता है। यह परिभाषा उस वस्तुत्व से भिन्न वस्तु है किन्तु परिभाषा तत्त्व से सम्बन्धित होती है अत: वस्तु से भिन्न होने पर भी उसका स्वरूप बोधन कराती है । (ii) स्वामित्व --ज्ञेय वस्तु से भिन्न किन्तु सम्बन्धित । उसके स्वामी को पहचानने से भी उस वस्तु का १. 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्"-तत्त्वार्थसूत्र १२ २. 'तन्निसर्गादधिगमावा'-तत्त्वार्थसूत्र १.३ खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१)
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