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बोध होता है । (iii) साधना-ज्ञेय वरतु के निर्माण की साधना द्वारा उस वस्तु को पहचाना जा सकता है। (iv) अधिकरण-ज्ञेय पदार्थ जिसके आश्रय में स्थित हो उस आश्रय के निमित्त इसे पहचाना जाता है। (v) स्थिति--ज्ञेय पदार्थ जिस काल में स्थित हो उस काल के द्वारा उसको पहचानना होता है। (vi) विधान--जो भी विधान किसी वस्तु तत्त्व के सम्बन्ध में हो उस विधान द्वारा वस्तु को पहचाना जाता है।
इस प्रकार इन छहों रूपों में ज्ञेय तत्त्व से सम्बन्धित किन्तु भिन्न तत्त्व द्वारा ज्ञेय तत्त्व का ज्ञान होता है अतः इन्हें अनुयोग कहना उचित है।
(२) अनुगम के निम्नांकित आठ प्रकारों में वस्तु के अपने स्वरूप द्वारा ही उसको जाना जाता है।
(i) सत्-सत् शब्द यद्यपि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है किन्तु प्रसंगानुकूल सत् शब्द की निम्न परिभाषा ग्राह्य समझी गई है:--"उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" अर्थात् जो वस्तु द्रव्य और गुण की अपेक्षा से ध्रुव या अविनाशी हो तथा उसमें गुण से उत्पन्न होने वाले पर्यायों अर्थात् भावों की अपेक्षा से प्रतिक्षण उत्पाद और व्यय होता रहता हो उसे सत् कहते हैं। यह अविनाशी सत् अर्थात् विद्यमान भाव और असत् अर्थात् अविद्यमान भाव उस वस्तु में ही देखे जा सकते हैं, इस प्रकार सत् भाव के द्वारा वस्तु का जो निर्णय होता है वह अनुगम समझा जाता है। (ii) संख्या-ज्ञेय वस्तु की जितनी संख्या हो उस संख्या द्वारा, (iii) क्षेत्र-जितने क्षेत्र में उसकी अवगाहना हो उस क्षेत्र द्वारा, (iv) स्पर्श-ज्ञेय वस्तु का जैसा स्पर्श हो उस स्पर्श के द्वारा, (v) काल-- जितने समय तक वस्तु स्थिर रहने वाली हो उस काल द्वारा तथा (vi) अन्तर-वस्तु के होने और मिटने में जो अन्तर रहता हो उसके द्वारा जो निर्णय होता है वह समस्त अनुगम के अन्तर्गत है। (vii) भाव-भाव का स्वरूप भी जैन दर्शन में अति विस्तार से समझाया गया है। जीव द्रव्य में समुच्चय की दृष्टि से देखा जाय तो पांच प्रकार के भाव पाये गये हैं:-यथा
[१] कर्म प्रकृति के उपशम से उत्पन्न होने वाला औपशमिक भाव । [२] कर्म प्रकृति के क्षय से उत्पन्न होने वाला क्षायिक भाव। [३] कर्म प्रकृति के कुछ अंश के क्षय और कुछ अंश के उपशम से उत्पन्न होने वाला क्षायोपशमिक भाव । [४] कर्म प्रकृति के उदय से जीवत्व का विकार उत्पन्न करने वाला औदयिक भाव । (५] एक पर्याय के नष्ट होने और दूसरी के उत्पन्न होने तथा फिर भी उसी क्रम से नष्ट होने और उत्पन्न होते रहने से उन पर्यायों के नष्ट हो जाने पर भी उनके परिणाम-स्वरूप रह जाने वाला पारिणामिक भाव । जैसे-चलचित्र में प्रथम चित्र के निकल जाने पर भी दूसरे चित्र के साथ उसका सम्बन्ध पूर्व चित्र के पारिणामिक भाव के कारण ही प्रतीत होता है।
अजीव द्रव्य में कोई कर्म प्रकृति का संबंध नहीं होता, इसलिये उसमें केवल एक पारिणामिक भाव ही हुआ करता है। अतः जैसी जो वस्तु हो, उसके विद्यमान भाव, जिसको "अस्ति' कहते हैं अथवा अविद्यमान भाव, जिसे "नास्ति' कहते हैं अथवा अवक्तव्य भाव जो, जो "अकथनीय' होते हैं, उनमें से जो भी जैसा भाव हो उससे उसके तात्त्विक स्वरूप को पहचान लिया जाता है। १३४
तुलसी प्रज्ञा
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