Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष का मार्ग मानता है और बौद्धधर्म व्यक्ति को प्रज्ञा, शील और समाधि से निर्वाण तक पहुंचाता है। महावीर और बुद्ध दोनों महापुरुषों ने संसार को अनित्य और दुःखदायी माना है । उनकी दृष्टि में सांसारिक पदार्थ क्षणभंगुर हैं और उनका मोह जन्म-मरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है । इसका मूल कारण मोह, अविद्या, मिथ्यात्व अथवा राग-द्वेष है । रागद्वेष से अशुद्धभाव, अशुद्धभाव से कर्मों का आश्रव (आगमन ), बंधन और कालांतर में उदय, उदय से गति, गति से शरीर, शरीर से इन्द्रियां, इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से सुखानुभूति और दुःखानुभूति होती है । महावीर ने इसी को भवचक्र कहा है और रागद्वेष से विनिर्मुक्ति अवस्था को ही मोक्ष बताया है । बुद्ध ने इसी को 'प्रतीत्यसमुत्पाद' कहा है जिसे उन्होंने उसके अनुलोम-विलोम रूप के साथ सम्बोधिकाल में प्राप्त किया था । उत्तरकाल में प्रतीत्यसमुत्पाद का सैद्धान्तिक पक्ष दार्शनिक रूप से विकसित हुआ और यह विकास स्वभावशून्यता तक पहुंचा । भेदविज्ञान और धर्मप्रविचय जिसे जैनधर्म में तत्त्वदृष्टि अथवा भेदविज्ञान कहा गया है उसी को श्रमण संस्कृति की अन्यतम शाखा बौद्धधर्म में 'धर्मप्रविचय' की संज्ञा दी गई है । धर्मप्रविचय का अर्थ है - साश्रव - अनाश्रव का ज्ञान । इसी को 'प्रज्ञा' कहा गया है। प्रज्ञा का तात्पर्य है ..... अनित्यादि प्रकारों से धर्मों को जानने वाला धर्म । यह एक कुशल धर्म है जो मोहादि के दूर होने से उत्पन्न होता है । इसी प्रज्ञा को तत्त्वज्ञान कहा गया है । जैनधर्म इसे 'सम्यग्ज्ञान' कहता है । अष्टसाहस्रिका में प्रज्ञापारमिता को बुद्ध का धर्मकाय माना गया है । दोनों की व्याख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं है । सम्यग्दर्शन और बोधिचित्त जिसे जैनदर्शन सम्यग्दर्शन कहता है, उसे बौद्धदर्शन में 'बोधिचित्त' कहा गया है । बोधिचित्त उत्तरकालीन बौद्धधर्म के विकास का परिणाम है । बोधिचित्त शुभ कर्मों की प्रवृत्ति का सूचक है । उसकी प्राप्ति हो जाने पर साधक नरक, तिर्यक्, यमलोक, प्रत्यन्तजनपद, दीर्घायुष देव, इन्द्रिय विकलता, मिथ्या दृष्टि और चित्तोत्पाद - विरागता इन आठ लक्षणों से विनिर्मुक्त हो जाता है । इस अवस्था में साधक समस्त जीवों के उद्धार के उद्देश्य से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए चित्त को प्रतिष्ठित कर लेता है ।' बोधिचर्यावतार में इसके दो भेद किए गए हैं - बोधिप्रणिधिचित्त और बोधिप्रस्थान चित्त । स्व-पर भेदविज्ञान अथवा हेयोपादेय ज्ञान सम्यग्दर्शन है । वह कभी स्वतः होता है, कभी परोपदेशजन्य होता है । संवेग, निर्वेद, निन्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि के होते हैं। निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन बोधिचित्त में भी दिखाई देते हैं पर उसके अन्य भेद बोधिचित्त के भेदों के साथ मेल नहीं रखते । सम्यग्दृष्टि के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं । मिथ्यात्व आदि भावों के अभाव होने के कारण ज्ञानी को दुर्गतिप्रापक कर्मबन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि भी अधिकांश लक्षणों से विनिर्मुक्त रहता है । वह नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्रीत्व तथा निम्नकुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता है । १२० Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रमा www.jainelibrary.org

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