Book Title: Tulsi Prajna 1991 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 24
________________ राग-मोह मुक्त चरित वालों के राग-मोह आदि दोषों को दूर करने की दृष्टि से इनका उपयोग निर्दिष्ट है । शील की परिशुद्धि के लिए भिक्षु को लोकामिष (लाभ-सत्कार आदि) का परित्याग, शरीर और जीवन के प्रति निर्ममत्व तथा विपश्यना भावना से संयुक्त होना चाहिए । इसकी प्रपूर्ति के लिए तेरह धुतांगों का पालन उपयोगी बताया है-पांसुकूलिकांग, चीवरिकांग, पिण्डपातिकांग, सापदान चारिकांग, एकासनिकांग, पात्रपिंडिकांग खलुपच्छाभत्तिकांग, आरण्यकांग, वृक्षमूलिकांग, अभ्यपकासिकांग, श्मशानिकांग, यक्षसंस्थरिकांग एवं नैसद्यकांग ।३।। जैन और बौद्ध आगमों में कल्प पर भी विचार हुआ है । कल्प का अर्थ हैनीति, आचार, योग्य । जो कार्य ज्ञान, शील और तप का उपग्रह करता है और दोषों का निग्रह करता है वह कल्प है। ये कल्प दस प्रकार के हैं—आचेलक्य, औद्देशिक शय्यातर राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासकवासता, और पर्युषणाकल्प ये साधु के दस स्थितिकल्प है । ३५ __ चुल्लवग्ग में भी दस कल्पों का उल्लेख है जिनका सम्बन्ध वज्जिपुत्तक भिक्षुओं के आचार से है--गिलवण कल्प, व्यंगुल, ग्रामान्तर, आवास, अनुमत, आचीर्ण, अमथित, जलोगीपान, अदेशक, निसिदन और जातरूपरजत । ये ही कल्प संघभेद के कारण बने थे। इन दस विनयविरुद्धवस्तुओं के उपयोग का विरोध यश ने किया था। परिणामतः द्वितीय संगीति हुई जिसमें वैशाली के वज्जिपुत्तकों का पूर्णतः विरोध हुआ । आध्यात्मिक दृष्टि से ये कल्प यद्यपि गौण कहे जा सकते हैं पर जैन-बौद्ध विनय में इनका उल्लेख तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ___ महावग्ग के प्रारम्भ में ही यह कहा गया है कि बुद्ध ने महावीर का अनुकरणकर वर्षावास प्रारंभ किया था। उसी क्रम में निगण्ठोपोसथ को भी बौद्धों ने स्वीकार किया था । चतुर्दशी, पूर्णमासी और अष्टमी को सभी भिक्ष एकत्रित होकर प्रातिमोक्ष की आवृत्ति करते थे। उपोसथ या संघकर्म में सभी भिक्षु ओं का उपस्थित होना आवश्यक हैं। प्रातिमोक्ष का पाठक र "परिसुद्धो हं आवुसो परिसुद्धो त्ति मं धारेथ" तीन बार कहा जाता । यदि कोई किसी नियम से च्युत रहता तो वह निश्छल भाव से उसे स्वीकार करता । इसी को "प्रवारणा" कहा गया है । इसमें इष्ट, श्रुत और परिशंकित अपराधों का परिमार्जन किया जाता है तथा परस्पर में विनय का अनुमोदन होता हैअनुजानामि भिक्खवे...........।" उपोसथ में अपने अपराधों की पाक्षिक परिशुद्धि होती है ओर प्रवारणा में वार्षिक परिशुद्धि होती है।३९ जैनधर्म में उपोसथ जैसा प्रोषधोपवास नामक ग्यारहवां व्रत है । प्रवारणा की तुलना प्रतिक्रमण से की जा सकती है। जैन विनय में तप का महत्त्व बौद्ध विनय की अपेक्षा बहुत अधिक है । बाह्यतप के रूप बौद्धधर्म में नहीं मिलते । अन्तरंग तप के छहों प्रकार अवश्य मिल जाते हैं पर उनमें भी वह सघनता नहीं जो जैनधर्म में है। प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाच्य और पारांचिक ये दसोंभेद बौद्ध विनय के विभिन्न रूपों में प्राप्त हो जाते हैं । विनय में अनुशासन बनाए रखने के लिए तथागत बुद्ध ने अनेक प्रकार की दण्ड व्यवस्था की थी। स्मृतिविनय, अमूढ़विनय, प्रतिज्ञातकरण, १२४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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