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श्रमण-श्रमणी विनय
गृहावास आर्तध्यान का कारण है, काम-क्रोधादि वासनाएं और कषाय उसमें जागृत होते हैं, चपल मन को वश में करना कठिन हो जाता है। इसलिए व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करता है। बुद्ध भी इस तथ्य से अपरिचित नहीं रहे। उन्होंने लिच्छविपुत्र सुनक्खत्त से यही कहा कि भिक्षु बनने का मूल उद्देश्य समाधि भावनाओं की प्राप्ति और निर्वाण का साक्षात्कार करना है। पर कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि कतिपय लोग प्रव्रज्या किसी दूसरे ही उद्देश्य से लिया करते थे । दीघनिकाय के सामञफल सुत्त में सत्कार, मधुर भोजन और अपराध क्षमा को प्रव्रज्या के बाह्य सद्यःलाभों में गिनाया है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने कुछ और गहराई से इन कारणों पर विचार किया है। उन्होंने ऐसे दस कारण प्रस्तुत किए हैं. छन्दा (स्वयं की इच्छा), २. रोषा (क्रोधजन्या), ३. परिघुना (दरिद्रताजन्या), ४. स्वप्ना, ५. प्रतिश्रुता, ६. स्मारणिका, ७. रोगिणिका ८. अनादृता, ६. देवसंज्ञप्ति और १०. वत्सानु बन्धिका। वहीं पर उन्होंने कुछ और भी कारण दिए हैं-इहलोक प्रतिबद्धा, परलोक प्रतिबद्धा, उभयत : प्रतिबद्धा, पुरतः प्रतिबद्धा, पृष्ठत : प्रतिबद्धा।
__ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाला शान्त और चरित्रवान् हो । कुरूपों, हीनाधिक अंगवालों तथा कुष्ठ आदि रोगवालों को दीक्षा का अधिकारी नहीं माना गया ।' महावग्ग में भी प्रव्रज्या के अयोग्य व्यक्तियों में कुष्ठ, फोड़ा, चर्मरोग, सूजन और मृगी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति राजसैनिक, ध्वजबन्ध, डाकू, चोर, राजदण्डप्रापक, ऋणी और दास को गिनाया गया है ।१५
__जैनधर्म में दीक्षाकाल का कोई विशेष समय निर्धारित नहीं है। बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग और प्रशान्त भाव हो जाने पर कभी भी दीक्षा ली जा सकती है।" इसलिए बाल दीक्षा के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। अतिमुक्तककुमार की आयु, दीक्षा के समय मात्र छः वर्ष थी। पर साधारणतः आठ वर्ष से कुछ अधिक अवस्था होने पर ही दीक्षा (प्रव्रज्या) दी जाती है।" इस दीक्षा को प्रव्रज्या कहा जाता है और छ: माह बाद उसकी उवट्ठवणा होती है । इस छह माह के काल को शिक्षाकाल (सेहभूमि) कहा जाता है । इस काल में साधक के सफल हो जाने पर उवट्ठवणा दे दी जाती है अन्यथा छेदोपस्थापना परिहार हो जाता है।५
बौद्धधर्म में भी पहले तो बुद्ध "एहि भिक्खू" कहकर साधक को दस वर्ष की अवस्था में भी दीक्षित करते थे और कुछ काल व्यतीत होने पर उपसंपदा देकर संघ में पूर्ण प्रवेश दे दिया जाता था। बाद में प्रव्रज्या और उपसंपदा 'त्रिशरण' देकर दी जाने लगी और भिक्षुओं को भी दीक्षित करने का अधिकार दे दिया गया । संघ को अनुशासित करने के लिए उपाध्याय और आचार्य की नियुक्ति की गई। प्रव्रज्यार्थी के लिए पन्द्रह तथा उपसंपदा के लिए बीस वर्ष की आयु का निर्धारण हुआ । श्रमणों को दसशिक्षापदों का पालन करना आवश्यक बताया गया--पाणातिपात, अदिन्नादान, मुसावाद, सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठात, विकाल भोजन, नच्चगीतवादित्तवीसूकदस्सन, मालागन्धविलेपन-धारण-मण्डन विभूसगट्ठान, उच्चासयन-महासयन और खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ११)
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