Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 13
________________ (8) जैनागममें परंपरा को बहुतही ऊंचा स्थान दिया है, जो वचन परंपरा के अनुकूल हैं वे बाह्य और प्रामाणिक माने जाते है। जिन वचनों में परंपराकी अवहेलना की जाती है वे उच्छृंखल वचन होने से कभी भी ग्राह्य नहीं होते और न प्रमाणही माने जाते हैं। सोमसेन महाराजने परंपराके सामने अपना सिर झुकाया है । यथा -- येत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः सामन्तभदैस्तथा सिद्धान्ते गुणभद्रनाथमुनिभिर्भट्टाकलंकैः परैः । श्री सुरिद्विज नामधेयविबुधैराशा धरैर्वाग्वरैस्तदृष्ट्रा रचयामि धर्मरसिकं शास्त्रं त्रिवर्णात्मकं ॥ यह ग्रन्थ एक संग्रह ग्रंथ हैं । ग्रन्थान्तरोंके प्राचीन श्लोक इसमें उद्धृत किये गये हैं । विषय प्रतिपादक सभी श्लोक ग्रन्थान्तरोंके कहे जांय तो अत्युक्ति न होगी । जैनमत से समता रखने वाले मृत्तिका शुद्धि जैसे व्यावहारिक श्लोकों का संग्रह भी इसमें किया गया है । इस तक ग्रंथकर्ता स्वयं स्वीकार करते हैं । यथा श्लोका ये पुरातना विलिखिता अस्माभिरन्वर्थतस्ते दीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ते परं । नानाशास्त्रमतान्तर यदि नवं प्रायोऽकरिष्यं त्वहं कशाऽमाऽस्य महो तदेति सुधियः केचित्प्रयोगंवदाः ॥ जब कि इसमें ऐसे श्लोकों का भी संग्रह है तब संभव है कि उन्होंने कोई विषय जैन धर्म के प्रतिकूल भी लिख दिये हों ऐसी आशंका करना भी निर्मूल है । क्योंकि वे भी स्वयं जैन थे, जैसा खयाल पद पद पर हम करते हैं वैसा वे भी करते थे, जैसी हमारी ( वर्तमान समय के पुरुषों की ) जैनमत के साथ हमदर्दी है वैसी उनकी भी थी, ऐसा नहीं है कि हमही जैनमतकी अनुकूलता - प्रतिकूलताका खयाल करते हों और उन्होंने न किया हो । केवल हमही ( वर्तमान के पुरुहीने) जैनत्वका ठेका ले लिया हो और वे इस ठेके से पराङ्मुख हो । सारांश, अपने मतका पक्ष जैसा हमें है वैसा उन्हें भी था। अत एव ऊपरकी आशंका किसी कामकी नहीं है । कथन और आक्षेप । इस ग्रन्थमें मुख्यतः पाक्षिक त्रैवर्णिक के आचार का कथन है। नैष्ठिक श्रावक और मुनिके आचारकथनभी संक्षेपतः इसमें पाया जाता है। कितने ही विषय ऐसे होते हैं जो अपने अपने स्थानमें ही पालन करने योग्य होते हैं कितने ही ऐसे भी हैं जो हैं तो नियमरूपसे ऊपर के दर्जे में ही पालन करने योग्य परंतु अभ्यास रूपसे नीचेके दर्जेमें भी पालन किये जाते हैं और कितनेही विषय ऐसे भी हैं जो ऊपर और नीचे दोनोंही दर्जोंमें पालन किये जाते हैं पर स्वस्थानके मूलाचरणका त्याग नहीं किया जाता । कितनेही लोग जो विधि-निषेध मुनिके लिए है उसको नैष्ठिक और पाक्षिक के लिए और जो नैष्ठिक के लिए है उसको पाक्षिक के लिए भी समझ लेते हैं । वे इस खयालको बिलकुल भूल जाते हैं कि यह विधि - निषेध किसके लिए तो है और किसके लिए नहीं है अथवा यह अमुक के लिए है मैं अमुक के लिए इसकी योजना कैसे करता हूं । ऐसे लोग मनःकल्पित एक पक्षमें उतर १ इसका अर्थ पृष्ठ ३ श्लोक नं. ९ में देखो ।

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