Book Title: Terah Dwip Puja Vidhan
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 12
________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [3 === === = == == === == = केवल प्रगटे वर्जित अहार, उपसर्ग रहित प्रभु तन विचार। चतुरानन प्रभुको दरस होय, सब जीव लहैं आनंद सोय॥१२॥ सब विद्याके ईश्वर महान, परमौदारिक तन विमल जान। तन छाया रहित कहो गणेश, लागै न पलक सों पलक लेश॥१३॥ नखकेश बर्दै नहिं जिन शरीर, केवल अतिशय दस भइवीर। / जै जै जिनवर तुम गुण विशाल, गा4 ते शिवपद लहैं हाल // 14 // दोहा-दस अतिशय केवल तनी, पूरण भई सुजान। अब सुरकृत चौदह सरस, भाषी श्री भगवान // 15 // अडिल्ल छन्द सरस मागधी भाषा जिन मुखतै खिरै, समझै सबही जीव पाप तिनके ह। सब जिवनके मैत्री भाव निहारये, सब रितुके फल फूल फलै सुविचारये॥१६॥ . सुन्दरी छन्द सरस दरपण सम सुधरा लसे, सरव जीवनकै आनंद वसै। पवन गंध सुगंध तहा चलै, अघ समूह सबै ही दलमलै॥ धूल कंटक कहुं न देखये, जोजनांतरतांहि न लेखये। होत गन्धोदक वरषा सही, परमपावन शोभित है मही॥ रचत कमल सुदेव सुहावने, पंचदश पंकति मन भावने। भए हैं सौ पच्चिस जानिये, सकल ध्यान फलैं परमानिये॥ सुर सु आह्वानन विधिको करैं गगन निर्मलता धुतिको धरें। धरम चक्रसु आगेको चलै, पाप पुंज समूहनको दलै॥

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