Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 13
________________ ६] | तत्त्वज्ञान तरंगिणी उत्तम है, क्योंकि दूसरोंसे जाना देखा जाने पर भी यह ज्ञाता और दृष्टा है । परन्तु इससे अन्य सब द्रव्य जड हैं, इसलिये वे ज्ञान और दर्शनके ही विषय हैं, अन्य किसी पदार्थको देखते जानते नहीं ।। १० ।। स्मृतेः पर्यायाणामवनिजलभृतामिंद्रियार्थांगसां च त्रिकालानां स्वान्योदितवचनततेः शब्दशास्त्रादिकानां । सुतीर्थानामत्रप्रमुखकृतरुजां क्ष्मारुहाणां गुणानां विनिश्चयः स्वात्मा सुविमलमतिभिर्दृष्टबोधस्वरूपः ॥ ११ ॥ अर्थः- जिनकी बुद्धि विमल है - स्व और परका विवेक रखनेवाली है, उन्हें चाहिये कि वे दर्शन - ज्ञान स्वरूप अपनी आत्माको बाल, कुमार और युवा आदि अवस्थाओं, क्रोध, मान, माया आदि पर्यायोंके स्मरण से पर्वत और समुद्रके ज्ञानसे, रूप, रस, गंध आदि इन्द्रियोंके विषय और अपने अपराधोंके; स्मरणसे, भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालोंके ज्ञानसे; अपने, पराये वचनोंके स्मरणसे, व्याकरण - न्याय आदि शास्त्रोंके मनन- ध्यानसे निर्वाणभूमियोंके देखने जाननेसे; शस्त्र आदिसे उत्पन्न हुये घावोंके ज्ञानसे; भांति भांतिके वृक्षों की पहिचानसे और भिन्न भिन्न पदार्थोंके भिन्न भिन्न गुणोंके ज्ञानसे पहिचाने । भावार्थः – जो पदार्थ ज्ञानशून्य जड़ है उनके अंदर यह सामर्थ्य नहीं कि वे बाल-कुमार - वृद्ध आदि अवस्था, क्रोध, मान, माया आदि पर्याय, पर्वत, समुद्ररूप आदि इन्द्रियोंके विषय, अपने-पराये अपराध, तीन काल, अपने परके वचन, न्याय - व्याकरण आदि शास्त्र, निर्वाणभूमि, घाव आदिका दुःख, भांति-भाँति के वृक्ष और पदार्थोंके भिन्न-भिन्न गुण जान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org •

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