Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 12
________________ प्रथम अध्याय ] नोपादेयोप्यहेयो न न पररहितो ध्येयरूपो न पूज्यो नान्योत्कृष्टश्च तस्मात् प्रतिसमयमहं तत्स्वरूप स्मरामि ॥९॥ अर्थः--यह शुद्धचिद्रूप ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । तप, सुख, शक्ति और दोषोंके अभाव स्वरूप है । गुणवान और परम पुरुष है। उपदेय-ग्रहण करने योग्य और अहेय (न त्यागने योग्य) है । पर परिणतिसे रहित ध्यान करने योग्य है । पूज्य और सर्वोत्कृष्ट है। किन्तु शुद्धचिद्रूपसे भिन्न कोई पदार्थ उत्कृष्ट नहीं, इसलिये प्रतिसमय मैं उसीका स्मरण मनन करता हूँ । भावार्थः-संसार में जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, सुख आदि पदार्थों को हितकारी और उत्तम् मानते हैं, परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिसे ये सब अपने आप आकर प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि शुद्धचिद्रूपसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं, इसलिये जिन महानुभावोंको सम्यग्दर्शन आदि पदार्थों के पानेकी अभिलाषा है उन्हें चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपका ही स्मरण मनन ध्यान करें ।।९।। ज्ञेयो दृश्योऽपि चिद्रपो ज्ञाता दृष्टा स्वभावतः । न तथाऽन्यानि द्रव्याणि तस्माद् द्रव्योत्तमोऽस्ति सः ॥ १० ॥ अर्थः- यद्यपि यह चिद्रूप, ज्ञेय-ज्ञानका विषय, दृश्यदर्शनका विषय है । तथापि स्वभावसे ही यह पदार्थोंका जानने और देखनेवाला है, परन्तु अन्य कोई पदार्थ ऐसा नहीं जो ज्ञेय और दृश्य होने पर जानने देखनेवाला हो, इसलिये यह चिद्रूप समस्त द्रव्योंमें उत्तम है । भावार्थः-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे द्रव्य छह प्रकारके हैं। उन सबमें जीव द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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