Book Title: Tattvagyan Tarangini
Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 10
________________ प्रथम अध्याय ] गुणोंका भंडार शुद्धचिद्रूप कहा जाता है । यहां इतना विशेष है कि पहिले श्लोकसे सिद्धोंको शुद्धचिद्रूप कहा है और इस श्लोकसे अर्हत भी शुद्धचिद्रूप हैं यह बात बतलाई है ।। ३ ।। स्पर्शरसगंधवणे : शब्दैर्मुक्तो निरंजनः स्वात्मा । तेन च खैरग्राह्योऽसावनुभावनागृहीतव्यः ॥ ४ ॥ अर्थः -यह स्वात्मा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दोंसे रहित है, निरंजन है । इसलिये किसी इन्द्रिय द्वारा गृहीत न होकर अनुभवसे-स्वानुभव प्रत्यक्षसे इसका ग्रहण होता है । भावार्थ:-जिस पदार्थमें स्पर्श, रस आदि गुण होते हैं, उसका ही प्रत्यक्ष स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे होता है, अन्यका नहीं । इस स्वात्मा-शुद्ध आत्मामें कोई स्पर्श आदि नहीं है, इसलिये स्पर्शके अभावसे इसे स्पर्शन इन्द्रियसे, रसके अभावसे रसना इन्द्रियसे, गंधके अभावसे घ्राण इन्द्रियसे, वर्णके अभावसे चक्षुरिन्द्रियसे और शब्दके अभावसे श्रोत्र इन्द्रियसे नहीं जान सकते । किन्तु केवल 'अहं अहं' इस अन्तमुखाकार प्रत्यक्षसे इसका ज्ञान होता है ऐसा जानना चाहिये ।।४ ।। सप्तानां धातूनां पिंडी देहो विचेतनो हेयः । तन्मध्यस्थोऽवैतीक्षतेऽखिलं यो हि सोहं चित् ॥५॥ आजन्म यदनुभूतं तत्सर्वं य: स्मरन् विजानाति । कररेखावत् पश्यति सोऽहं बद्धोऽपि कर्मणाऽत्यंतं ॥ ६ ॥ श्रुतमागमात् त्रिलोकेत्रिकालजं चेतनेतरं वस्तु । यः पश्यति जानाति च सोऽहं चिद्रप लक्षणो नान्यः ।। ७ ।। अर्थः--यह शरीर शुक्र, रक्त, मज्जा आदि सात धातुओंका समुदाय स्वरूप है, चेतना शत्तिसे रहित और त्यागने योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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