Book Title: Tattvagyan Tarangini Author(s): Gyanbhushan Maharaj, Gajadharlal Jain Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust View full book textPage 9
________________ [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी समस्त पदार्थों में शुद्धचिद्रूप ही उत्तम है ।। १ ।। पश्यत्यवैति विश्वं युगपन्नोकर्मकर्मणामणुभिः । अखिलैर्मुक्तो योऽसौ विज्ञेयः शुद्धचिद्रपः ॥ २ ॥ अर्थः- जो समस्त जगतको एक साथ देखने जाननेवाला है । नोकर्म और कर्मके परमाणुओं ( वर्गणाओं )से रहित है उसे शुद्धचिद्रूप जानना चाहिये ।। भावार्थ:---कार्माणजातिकी पुद्गल वर्गणायें लोकाकाशमें सर्वत्र भरी हुई हैं और तेल आदिकी चिकनाईसे युक्त पदार्थ पर जिसप्रकार पवनसे प्रेरे धूलिके रेणु आकार लिपट जाते हैं, उसीप्रकार स्फटिक पाषाणके समान निर्मल भी, रागद्वेषरूपी चिकनाईसे युक्त आत्माके साथ कार्माण जातिकी वर्गणायें संबद्ध हो जाती हैं और इसके ज्ञान दर्शन आदि स्वभावोंको ढक देती है । परन्तु जो समस्त नोकर्म और कर्मोंकी वर्गणाओंसे रहित है और विरोधीकर्म ( केवल ) दर्शनावरण एवं (केवल) ज्ञानावरणका नाशकर अपने अखंड दर्शन और अखंड ज्ञानसे समस्त लोकको एक साथ देखने जाननेवाला है उसीका नाम शुद्धचिद्रूप है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर एवं आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियोंके योग्य कर्मपुद्गल नोकर्म हैं और ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्म कहे जाते हैं ।। २ ।। अर्थान् यथास्थितान् सर्वान् समं जानाति पश्यति । निराकुलो गुणी योऽसौ शुद्धचिद्रप उच्यते ॥३॥ अर्थः-जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उन्हें उसी रूपसे एक साथ जानने देखनेवाला, आकुलतारहित और समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .Page Navigation
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