Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika Author(s): Udaychandra Jain Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan View full book textPage 8
________________ प्रधान सम्पादकीय जैन संस्कृत साहित्य एवं दर्शन के इतिहास में महावादी, वाग्मी, गमक, महाकवि, कविकुञ्जर, वज्रांकुश, कविवेधा एवं महावादि - विजेता के रूपमें प्रख्यात स्वामी समन्तभद्र अपने स्तोत्र - साहित्यकी मौलिक विशेषताओंके कारण युगप्रधान एवं भक्त दार्शनिक आचार्य माने गए हैं । उनकी अद्यावधि ज्ञात ग्यारह कृतियोंमेंसे (१) बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र ( अपरनाम स्वयम्भू स्तोत्र अथवा चतुर्विंशतिजिनस्तवन ) ( २ ) स्तुति - विद्या ( अपरनाम जिनशतक) (३) देवागम स्तोत्र ( अपरनाम आप्तमीमांसा) एवं (४) परमात्म स्तोत्र ( अपरनाम परमेष्ठीस्तोत्र अथवा युक्त्यनुशासन) ये चार रचनाएँ स्तुतिपरक मानी गई हैं। क्योंकि इनमें जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंका स्तवन किया गया है, किन्तु इनमेंसे भी प्रथम दो कृतियाँ जिस प्रकार सर्वतोभावेन स्तुति - परक सिद्ध होती हैं और जिस प्रकार उनमें जिनेन्द्र प्रभुके वीतराग - गुणों की उत्कर्षताका भक्ति-भरित गुणानुवाद किया गया है, उसी प्रकार अन्तिम दो कृतियाँ स्तुति-परक होते हुए भी उनमें जिनेन्द्र- गुणोंके वर्णनमें उत्कर्षताकी मात्रा तो कम, किन्तु दार्शनिक - गुणों स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, नय, प्रमाण, प्रमेय तथा एकान्तवाद की तर्क- पूर्ण समीक्षा आदि की प्रधानता के कारण उन्हें स्तोत्र - साहित्य की कोटिसे पृथक् उच्च श्रेणी की दार्शनिक कृतियोंमें स्थान दिया गया है । समन्तभद्र की अन्य कृतियोंमें (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार (६) जीवसिद्धि (७) तत्त्वानुशासन, (८) प्राकृत - व्याकरण ( ९ ) प्रमाण-पदार्थ, (१०) कर्मप्राभृतटीका एवं (११) गन्धहस्तिमहाभाष्य प्रमुख हैं । किन्तु इनमेंसे अन्तिम छह कृतियाँ अनुपलब्ध ही है । गन्धहस्तिमहाभाष्य के विषय में इधर कुछ सूक्ष्म सांकेतिक चर्चा आई है कि वह सम्भवतः नष्ट नहीं हुआ है और इसकी खोजबीन के कुछ अप्रचारित प्रयत्न चल रहे हैं । फिर भी, उसके अस्तित्व के विषयमें अभी निश्चित रूपसे कुछ कह पाना सम्भव नहीं । समय ही इसका उत्तर देगा । प्रस्तुत स्वयम्भूस्तोत्र में २४ तीर्थंकरों की स्तुति के साथ-साथ समस्त तीर्थंकरों की पुराणेतिहास, संस्कृति एवं दर्शन सम्बन्धी त्रिपुटी प्रस्तुत की गई है । इस कृतिमें कुल १४३ पद्य हैं, जिनमें से १८वें २२वें एवं २४वें तीर्थंकरोंको छोड़कर बाकी २१ तीर्थंकरों की स्तुति ५-५ पद्योंमें तथा अवशिष्ट अरहनाथ, नेमिनाथ एवं महावीरका गुणानुवाद क्रमशः २०, १० एवं ८ पद्योंमें किया गया है । , इस रचनामें श्रमण संस्कृतिके चित्रण के साथ समन्तभद्रकालीन युगीन परिस्थितियों एवं दार्शनिक मान्यताओं की भी झाँकी मिलती है । इसीलिए उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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