Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
मंगलाशीष
“न्यायादनपेतं न्याय्यं श्रुतज्ञानम् अथवा ज्ञेयानुसारित्वान्यायरूपाद्वा न्याय: सिद्धान्तः” (ध.पु. 13/5, 5, 50/286) अर्थात् न्याय से युक्त होने के कारण श्रुत-ज्ञान को न्याय कहते हैं अथवा ज्ञेय का अनुसरण-कर्ता तथा न्याय-रूप से न्याय सिद्धांत है। "नीयतेऽनेनेति हि नीति-क्रिया-करणं न्याय उच्यते" (न्या.वि.व. 9/3/58/9) अर्थात् जिसके द्वारा निश्चय किया जाता है, ऐसी नीति-क्रिया को करने वाला न्याय कहलाता है।
न्याय सदा जीवंत रहता है, शाश्वत रहता है, अन्याय अधिक समय तक जीवित नहीं रहता, वह एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो ही जाता है, इसलिए न्याय अमरत्व है और अन्याय साक्षात्-मृत्यु है।
समस्त श्रुतधराचार्य न्याय के अनुसार चले, न्याय को अपने अनुसार नहीं चलाया, इसलिए उनकी कृतियाँ व व्यक्तित्व आज भी जीवंत हैं, पर जिन्होंने उसका आश्रय नहीं लिया, ख्याति-पूजा, प्रतिष्ठा व लाभ की क्षणिक चकाचोंध में अपने सिद्धान्त, दर्शन, कर्तव्य या विचारों को लोगों पर बलात् थोपा-लादा,... पर वह-सब तो चार दिन की चाँदनी ही रहा।
न्याय किसी नये सत्य का आविष्कार नहीं करता, क्योंकि सत्य कभी नया या पुराना नहीं होता, वह तो सदा शाश्वत होता है; हाँ, हमारी समझ में नया-पुरानापन आता है। सत्यान्वेषी सदा सत्य को, न्याय को अपने अनुसार नहीं, किन्तु स्वयं उसके अनुसार चलता है, हर परिस्थिति सत्य-विचार, उसी का उच्चार और उसे ही आचरण में लाता है, लोकानुशंसा या किसी भय से न तो वह बहता है और न डिगता है, गिरगिट की तरह रंग बदलता नहीं, इसलिए अपनी प्रामाणिकता सिद्ध