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की । गंधारपुरी या तो सूर त नगर का ही नाम था या उसके किसी एक भाग का अथवा उसके समीपवर्ती फिसी अन्य नगर का । यही सं० १५१३ के लगभग सुदर्शनचरित की रचना हुई। पूर्व परम्परा का स्मरण ___ सुदर्शनचरित के कर्ता मुमुक्षु विद्यानन्दि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में समस्त तीर्थकरों, सिद्धों, सरस्वती, जिनभारती तथा गौतम आदि गणघरों की वन्दना करने के पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, पात्रकेसरी, अकलंक, जिनमेन, रत्नकीति और गुणभा का स्मरण किया है। पश्चात् भट्टारक प्रभाचन्द्र और सूरिवर देवेन्द्र कोति को क्रमशः नमन कर कहा है कि जो दीक्षा रूपी लक्ष्मी का प्रसाद देने वाले मेरे विशेष रूप से गुरु हैं, उनका सेवक मैं विद्यानन्दी भक्ति सहित वन्दन करता हूँ। अनन्तर उन्होंने आशाधर सूरि का. भी स्मरण किया है तथा प्रत्येक पुष्पिका में प्रस्तुत कृति को मुमुक्षु विद्यानन्दि विरचित कहा हैं । ग्रन्थ वैशिष्ट्य
सुदर्शनवरित १३६२ पद्यों में द्वादश अधिकारों में सम्पूर्ण हुआ है। इसमें चरित काव्य के लक्षण प्रायः पाए जाते हैं। कवि का उद्देश्य कवित्व शक्ति प्रदर्शन न होकर मुनि सुदर्शन के श्रेष्ठ और निष्कस्लुष चारित्र का सरल भाषा में प्रतिपादन करना था। पूरा अन्य शान्ति रस की धारा में प्रवाहित हुआ है। बीच-बीच में मनोहारी और अर्थगाम्भीर्य की विशेषता को लिए हुए सुभाषितों का प्रयोग हुआ है । उदाहरणार्थ विद्या की महत्ता के विषय में कवि ने कहा है
विद्या लोकदये माता विद्या शर्मयशस्करी । विद्या लक्ष्मीकरा नित्यं विद्या चिन्तामणिहितः ॥३२॥ विद्या कल्पद्रुमो रम्यो विद्या कामहा च गौः । विद्या सारधर्म लोके विद्या स्वर्मोक्षदायिनी ॥३३||
(चतुर्थ अधिकार) कही कहीं थोड़े से शब्दों में बड़ी बात कह दी है । जैसे
कामिनां क्व विवेकिता ॥६७४ परोपदेशने नित्यं सर्वोऽपि कुशलो जनः ।।६।९२ कष्टं स्त्री दुराग्रहः ॥६।९।।
सुरतां भास्करोधोते सत्यं यति तमश्चयः ।।१०।१३६ १, सुदर्शनचरितम् । प्रस्तावना }, पृ. १६-१७ । २. वही, पृ० १३, सर्ग प्रथम-१-३२।